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आगम / अरुण कमल

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|रचनाकार=अरुण कमल
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केश तो बहुत पहले पक गए थे
 
जिन्हें तभी देखता जब आईना हो सामने
 
और आँखों पर कत्थई घेरे
 
जो ऎसे नज़र नहीं आते
 
आवाज़ में भी शायद पानी आ गयाथा
 
और छाती भी ढलने लगी थी कुछ
 
पर आज तो हथेली के ऊपर साफ़ दिखी
 
ढीली हुई चमड़ी भुरभुरी
 
तो क्या शुरू है अंत?
 
पास है समय?
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