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Kavita Kosh से
मैं मौन का दरवाज़ा
लांघता हूँ
बिना शब्द किये किए
अन्त की ओर
यहाँ न रंग दिखते हैं न रेखाएँ
न रूप न अरूप
दिखती है
एक चमकीली मछली
जूझती
हाँफती
तेज़ लहरों के खिलाफ
अन्त की शुरूआत ऐसे ही होती है क्या ?
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