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"कि अपनी हज़ार सूरतें निहार सकूँ / अरुणा राय" के अवतरणों में अंतर
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− | मैं उसे | + | जिस समय |
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− | मेरी ही रंगो-आब | + | उसके ज़र्रे-ज़र्रे में |
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− | पर मैं क्या कर सकती थी | + | झलक रही थी |
− | कि वह आईना था | + | पर मैं क्या कर सकती थी |
− | तो उसे बिखरना ही था | + | कि वह आईना था |
− | अब भी मैं उसकी आँखें हूँ | + | तो उसे बिखरना ही था |
− | और हर ज़र्रे से | + | अब भी मैं उसकी आँखें हूँ |
− | वे आँखें | + | और हर ज़र्रे से |
− | मुझे ही निहार रही हैं | + | वे आँखें |
− | पर क्या कर सकती हूँ मैं | + | मुझे ही निहार रही हैं |
− | कि मैंने ही बिखेर दिया है उसे | + | पर क्या कर सकती हूँ मैं |
− | कि अपनी हज़ार सूरतें | + | कि मैंने ही बिखेर दिया है उसे |
+ | कि अपनी हज़ार सूरतें | ||
निहार सकूँ... | निहार सकूँ... | ||
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22:45, 5 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
जिस समय
मैं उसे
अपना आईना बता रही थी
दरक रहा था वह
उसी वक़्त
टुकड़ों में बिखर जाने को बेताब सा
हालाँकि
उसके ज़र्रे-ज़र्रे में
मेरी ही रंगो-आब
झलक रही थी
पर मैं क्या कर सकती थी
कि वह आईना था
तो उसे बिखरना ही था
अब भी मैं उसकी आँखें हूँ
और हर ज़र्रे से
वे आँखें
मुझे ही निहार रही हैं
पर क्या कर सकती हूँ मैं
कि मैंने ही बिखेर दिया है उसे
कि अपनी हज़ार सूरतें
निहार सकूँ...