"दिल और शिकस्त-ए-दिल / अली सरदार जाफ़री" के अवतरणों में अंतर
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वो नग़्मा थी, शिकस्ते-शीशःए-दिल की सदा निकली | वो नग़्मा थी, शिकस्ते-शीशःए-दिल की सदा निकली |
09:39, 6 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
वफ़ा-पैकर थी वो लेकिन, वफ़ा नाआशना निकली
वो नग़्मा थी, शिकस्ते-शीशःए-दिल की सदा निकली
चरागे़-लालः ए-सहरा की सूरत दिल में रौशन थी
मगर पल भर में सहराओं की बेपर्वा हवा निकली
बहुत बेबाक आना था, बहुत दुज़्दाना जाना था
ये म्रे दिल की धड़कन भी वही आवाज़े-पा निकली
वफ़ा कैसी, कहाँ की बेवफ़ाई, इश्क़ की मंज़िल
थी मक़्तलगाह जिसमें हुस्न की तेग़े-अद निकली
ये सारा खेल था जो वक़्त के शातिर ने खेला था
न कुछ उसकी ख़ता निकली, न कुछ अपनी ख़ता निकली
कोई मंज़िल नहीं आवारःए-कूए तमन्ना की
नयी ख़ुशबूए-पैराहन लिये बादे-सबा निकली
निगारे-आतशीं-रुख़ और कोई आनेवाला है
दिले-वीराँ की तारीकी में हलका-सा उजाला है
कोई तो ज़ख़्मे-दिल पर मर्हमे-मेहरो-वफ़ा रक्खे
कोई तो दर्द के रुख़सार पर दस्स्ते-शिफ़ा<ref>सद्भाव एवं आत्मीयता का हाथ</ref> रक्खे
फिर वही मेहरो-मुरव्वत फिर वही शौक़े फ़ुज़ूल
फिर वही सहराए-दर्द और दर्द के सहरा का फूळ
न कोई उसकी तरह है न वो किसी की तरह
करिश्मा हुस्न का हाफ़िज़ की शाइरी की तरह
तमाम शहदे-विसालो-तमाम ज़हरे-फ़िराक़
वो नौबहारे-तमन्ना है ज़िन्दगी की तरह
ये मेरा इश्क़ कि उसके बदन का शो’ला है
ये उसका हुस्न, कि है मेरी तश्नगी की तरह
मिले तो ऐसे मिले जैसे दोस्त बरसों के
छूटे तो ऐसे, कि लगते हैं अजनबी की तरह
चुराया जिसने, कोई साहिबे-नज़र होगा
चमक रही थी वो हीरे की रौशनी की तरह
चमन में रूह के तितली की तरह आयी थी
और अब गयी है तो सावन कि चाँदनी की तरह
तमाम कैफ़ियते-ज़िस्मो-जाँ तमाम हुई
किसी का यार नहीं उसकी दिलबरी की तरह
‘चमक रहा था मिज़ा<ref>पलक</ref> पर सितारःए-सहरी<ref>भोर का तारा</ref>
उदास वो भी थी ‘सरदार जाफ़री’ की तरह