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"कोई हो मौसम थम नहीं सकता रक़्से-जुनूँ दीवानों का(ग़ज़ल) / अली सरदार जाफ़री" के अवतरणों में अंतर
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|रचनाकार=अली सरदार जाफ़री | |रचनाकार=अली सरदार जाफ़री | ||
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− | + | ज़ंजीरों की झनकारों में शोरे-बहाराँ बाक़ी है | |
इश्क़ के मुजरिम ने ये मंज़र औ़ज़े-दार से देखा है | इश्क़ के मुजरिम ने ये मंज़र औ़ज़े-दार से देखा है | ||
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बर्गे-ज़र्द के साये में भी जूए-तरन्नुम जारी है | बर्गे-ज़र्द के साये में भी जूए-तरन्नुम जारी है | ||
− | ये तो शिकस्ते-फ़स्ले- | + | ये तो शिकस्ते-फ़स्ले-ख़िज़ाँ है, सौते-हज़ाराँ बाक़ी है |
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− | + | तर है दामन और वक़ारे-बादा-गुसाराँ<ref>मदिरापान करनेवालों की गरिमा</ref> बाक़ी है | |
फूल-से चेहरे, चाँद-से मुखड़े नज़रों से रूपोश हुए | फूल-से चेहरे, चाँद-से मुखड़े नज़रों से रूपोश हुए |
12:52, 6 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
कोई हो मौसम थम नहीं सकता रक़्से-जुनूँ दीवानों का
ज़ंजीरों की झनकारों में शोरे-बहाराँ बाक़ी है
इश्क़ के मुजरिम ने ये मंज़र औ़ज़े-दार से देखा है
ज़िन्दाँ-ज़िन्दाँ<ref>कारागार</ref>, महबस-महबस<ref>इस शब्द का प्रयोग ‘ज़िन्दाँ’ के अर्थ में ही किया गया है</ref>, हल्क़ःए-याराँ बाक़ी है
बर्गे-ज़र्द के साये में भी जूए-तरन्नुम जारी है
ये तो शिकस्ते-फ़स्ले-ख़िज़ाँ है, सौते-हज़ाराँ बाक़ी है
मुह्तसिबों<ref>धर्माधिकारी</ref> की ख़ुश्क़ी-ए-दिल पर एक ज़माना हँसता है
तर है दामन और वक़ारे-बादा-गुसाराँ<ref>मदिरापान करनेवालों की गरिमा</ref> बाक़ी है
फूल-से चेहरे, चाँद-से मुखड़े नज़रों से रूपोश हुए
आरिज़े-दिल पर रंगे-हिना है, दस्ते-निगाराँ बाक़ी है
शब्दार्थ
<references/>