भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"मौत की ट्रेन में दिदिया / अशोक वाजपेयी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
पंक्ति 2: पंक्ति 2:
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
 
|रचनाकार=अशोक वाजपेयी
 
|रचनाकार=अशोक वाजपेयी
}}
+
}}
ट्रेन के बरामदे में खड़े लोग<br>
+
{{KKCatKavita}}
बाहर की ओर देखते हैं पर न तो जल्दी ही<br>
+
<poem>
उतरने और न ही कहीं अंदर<br>
+
ट्रेन के बरामदे में खड़े लोग
बैठने की जगह पाने की उम्मीद में<br><br>
+
बाहर की ओर देखते हैं पर न तो जल्दी ही
 +
उतरने और न ही कहीं अंदर
 +
बैठने की जगह पाने की उम्मीद में
  
बिना उम्मीद के इस सफ़र में <br>
+
बिना उम्मीद के इस सफ़र में  
दिदिया भी कहीं होगी दुबकी बैठी<br>
+
दिदिया भी कहीं होगी दुबकी बैठी
या ऐसे ही कोने में कहीं खड़ी<br>
+
या ऐसे ही कोने में कहीं खड़ी
और पता नहीं उसने काका की खोज की भी या नहीं<br>
+
और पता नहीं उसने काका की खोज की भी या नहीं
दोनों अब इस ट्रेन में हैं जो बिना कहीं रुके<br>
+
दोनों अब इस ट्रेन में हैं जो बिना कहीं रुके
न जाने किस ओर चली जा रही है हहराती हुई<br><br>
+
न जाने किस ओर चली जा रही है हहराती हुई
  
कहीं सीट पर<br>
+
कहीं सीट पर
बरसों पहले आयी कुछ महीनों की बहन भी है<br>
+
बरसों पहले आयी कुछ महीनों की बहन भी है
जिसका चेहरा भी याद नहीं और बड़ी सफ़ेद दाढ़ीवाले<br>
+
जिसका चेहरा भी याद नहीं और बड़ी सफ़ेद दाढ़ीवाले
मंत्र बुदबुदाते बाबा भी<br><br>
+
मंत्र बुदबुदाते बाबा भी
  
न कोई नाम है न संख्या न रंग<br>
+
न कोई नाम है न संख्या न रंग
सब एक दूसरे से बेख़बर हैं और बेसामान<br>
+
सब एक दूसरे से बेख़बर हैं और बेसामान
न ट्रेन के रुकने का इंतज़ार है न किसी के आने का<br><br>
+
न ट्रेन के रुकने का इंतज़ार है न किसी के आने का
  
नीचे घास पर आँगन में छुकछुक गाड़ी का खेल खेलते<br>
+
नीचे घास पर आँगन में छुकछुक गाड़ी का खेल खेलते
जूनू डुल्लो दूबी चिंकू<br>
+
जूनू डुल्लो दूबी चिंकू
उस ट्रेन की किसी खिड़की से<br>
+
उस ट्रेन की किसी खिड़की से
 
दिदिया को पता नहीं दीख पड़ते हैं या नहीं?
 
दिदिया को पता नहीं दीख पड़ते हैं या नहीं?
 +
</poem>

18:13, 8 नवम्बर 2009 का अवतरण

ट्रेन के बरामदे में खड़े लोग
बाहर की ओर देखते हैं पर न तो जल्दी ही
उतरने और न ही कहीं अंदर
बैठने की जगह पाने की उम्मीद में

बिना उम्मीद के इस सफ़र में
दिदिया भी कहीं होगी दुबकी बैठी
या ऐसे ही कोने में कहीं खड़ी
और पता नहीं उसने काका की खोज की भी या नहीं
दोनों अब इस ट्रेन में हैं जो बिना कहीं रुके
न जाने किस ओर चली जा रही है हहराती हुई

कहीं सीट पर
बरसों पहले आयी कुछ महीनों की बहन भी है
जिसका चेहरा भी याद नहीं और बड़ी सफ़ेद दाढ़ीवाले
मंत्र बुदबुदाते बाबा भी

न कोई नाम है न संख्या न रंग
सब एक दूसरे से बेख़बर हैं और बेसामान
न ट्रेन के रुकने का इंतज़ार है न किसी के आने का

नीचे घास पर आँगन में छुकछुक गाड़ी का खेल खेलते
जूनू डुल्लो दूबी चिंकू
उस ट्रेन की किसी खिड़की से
दिदिया को पता नहीं दीख पड़ते हैं या नहीं?