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"काँच के टुकड़े / अशोक वाजपेयी" के अवतरणों में अंतर
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रोज़ बरस जाती है। | रोज़ बरस जाती है। | ||
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18:43, 8 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
काँच के आसमानी टुकड़े
और उन पर बिछलती सूर्य की करुणा
तुम उन सबको सहेज लेती हो
क्योंकि तुम्हारी अपनी खिड़की के
आठों काँच सुरक्षित हैं
और सूर्य की करुणा
तुम्हारे मुँडेरों भी
रोज़ बरस जाती है।