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"दृक्-दृश्यौ / इला कुमार" के अवतरणों में अंतर
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| तय था   | तय था   | ||
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| किसी एक दिन | किसी एक दिन | ||
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| ओसों की टप् टप् सुनते हुए | ओसों की टप् टप् सुनते हुए | ||
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| जाऐंगे हम पहाड़ों के पैरों तले    | जाऐंगे हम पहाड़ों के पैरों तले    | ||
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| जहाँ दूर तक बिछी है गहरी हरी घास की चादर | जहाँ दूर तक बिछी है गहरी हरी घास की चादर | ||
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| रख देंगे किसी अनचीन्ही सतह पर | रख देंगे किसी अनचीन्ही सतह पर | ||
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| कुछ सपने | कुछ सपने | ||
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| उद्वेलित मन प्राणों की सेंध से झांकते   | उद्वेलित मन प्राणों की सेंध से झांकते   | ||
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| अकुलाते ह्रदय की शांति   | अकुलाते ह्रदय की शांति   | ||
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| प्रतीक्षारत हैं वे | प्रतीक्षारत हैं वे | ||
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| ऊँचे कन्धों पर आकाशों की | ऊँचे कन्धों पर आकाशों की | ||
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| खुली खुली सी घेरती बाहें दुलारती मंद बयार   | खुली खुली सी घेरती बाहें दुलारती मंद बयार   | ||
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| छलछलाती झरने की दूधिया धार   | छलछलाती झरने की दूधिया धार   | ||
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| मीलों लंबे कालखंडों के पार | मीलों लंबे कालखंडों के पार | ||
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| यह मन गहरे स्वप्नों के बाद | यह मन गहरे स्वप्नों के बाद | ||
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| अकेला बैठा उकेरता है समाधिस्थ योगी सा   | अकेला बैठा उकेरता है समाधिस्थ योगी सा   | ||
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| विलीन होने लगता है द्वैत और द्वैती का भाव | विलीन होने लगता है द्वैत और द्वैती का भाव | ||
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| अखिल महाभाव में   | अखिल महाभाव में   | ||
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| सपने    | सपने    | ||
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| अनदेखी मान्यताएं   | अनदेखी मान्यताएं   | ||
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| अंत में बच रहते हैं   | अंत में बच रहते हैं   | ||
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| त्वं तत् और   | त्वं तत् और   | ||
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| झुके बादलों के पार का आकाश   | झुके बादलों के पार का आकाश   | ||
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| जहाँ प्रतिबिम्बित हो उठता है   | जहाँ प्रतिबिम्बित हो उठता है   | ||
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| शून्याभास का नितांत निजी संसार | शून्याभास का नितांत निजी संसार | ||
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19:39, 9 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
तय था 
किसी एक दिन
ओसों की टप् टप् सुनते हुए
जाऐंगे हम पहाड़ों के पैरों तले  
जहाँ दूर तक बिछी है गहरी हरी घास की चादर
रख देंगे किसी अनचीन्ही सतह पर
कुछ सपने
उद्वेलित मन प्राणों की सेंध से झांकते 
अकुलाते ह्रदय की शांति 
प्रतीक्षारत हैं वे
ऊँचे कन्धों पर आकाशों की
खुली खुली सी घेरती बाहें दुलारती मंद बयार 
छलछलाती झरने की दूधिया धार 
मीलों लंबे कालखंडों के पार
यह मन गहरे स्वप्नों के बाद
अकेला बैठा उकेरता है समाधिस्थ योगी सा 
विलीन होने लगता है द्वैत और द्वैती का भाव
अखिल महाभाव में 
सपने  
अनदेखी मान्यताएं 
अंत में बच रहते हैं 
त्वं तत् और 
झुके बादलों के पार का आकाश 
जहाँ प्रतिबिम्बित हो उठता है 
शून्याभास का नितांत निजी संसार
 
	
	

