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स्त्रियाँ घरों में रह कर बदल रही हैं
पदवियाँ पीढी दर पीढी स्त्रियाँ बना रही हैं
उस्ताद फिर गुरु, अपने ही दो-चार बुझे-अनबुझे
शव्दों से ,
दे रही हैं ढाढ़स, बन रही हैं ढाल,
सदियों से सह रही हैं मान-अपमान घर और बाहर.
स्त्रियाँ बढा रही हैं मर्यादा कुल की ख़ुद अपनी ही
मर्यादा खोकर,
भागम-भाग में बराबरी कर जाने के लिये
दौड रही हैं पीछे-पीछे,
कहीं खो रही हैं
कहीं अपनापन,
कहीं सर्वस्व.
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