भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"नव रसमय मूरति सदा / आलम" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=आलम }} Category:पद <poeM>नव रसमय मूरति सदा, जिन बरने नंदल...)
 
 
पंक्ति 3: पंक्ति 3:
 
|रचनाकार=आलम  
 
|रचनाकार=आलम  
 
}}
 
}}
 +
{{KKCatKavita}}
 
[[Category:पद ]]
 
[[Category:पद ]]
<poeM>नव रसमय मूरति सदा, जिन बरने नंदलाल।
+
<poeM>
 +
नव रसमय मूरति सदा, जिन बरने नंदलाल।
 
'आलम आलम बस कियो, दै निज कविता जाल॥
 
'आलम आलम बस कियो, दै निज कविता जाल॥
  
पंक्ति 81: पंक्ति 83:
 
'आलम जौन से कुंजन में करी केलि, तहाँ अब सीस धुन्यो करैं।
 
'आलम जौन से कुंजन में करी केलि, तहाँ अब सीस धुन्यो करैं।
 
नैंनन में जो सदा रहते, तिनकी अब कान कहानी सुन्यो करैं॥
 
नैंनन में जो सदा रहते, तिनकी अब कान कहानी सुन्यो करैं॥
 
 
</poeM>
 
</poeM>

00:45, 10 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण

नव रसमय मूरति सदा, जिन बरने नंदलाल।
'आलम आलम बस कियो, दै निज कविता जाल॥

प्रेम रंग पगे, जगमगे जागे जामिनि के,
जोबन की जोति जागि, जोर उमगत हैं।
मदन के माते, मतवारे ऐसे घूमत हैं,
झूमत हैं झूकि-झूकि, झ्रपि उघरत हैं॥

'आलम सो नवल, निकाई इन नैंनन की,
पाँखुरी पदुम पै, भँवर थिरकत हैं।
चाहत हैं उडिबे को, देखत मयंक मुख,
जानत हैं रैनि, ताते ताहि मैं रहत हैं॥

निधरक भई, अनुगवति है नंद घर,
और ठौर कँ, टोहे न अहटाति है।
पौरि पाखे पिछवारे, कौरे-कौरे लागी रहै,
ऑंगन देहली, याहि बीच मँडराति है॥

हरि-रस-राती, 'सेख नैकँ न होइ हाती,
प्रेम मद-माती, न गनति दिन-राति है।
जब-जब आवति है, तब कछू भूलि जाति,
भूल्यो लेन आवति है और भूलि जाति है॥

कैधौं मोर सोर तजि, गये री अनत भाजि,
कैधौं उत दादुर, न बोलत हैं ए दई।
कैधौं पिक चातक, महीप का मारि डारे,
कैधौं बकपाँति, उत अंतगत ह्वै गई॥

'आलम कहै हो आली, अजँ न आये प्यारे,
कैधौं उत रीति बिपरीत बिधि नै ठई।
मदन महीप की, दोहाई फिरिबे तें रही,
जूझि गये मेघ कैधौं दामिनी सती भई॥

चंद को चकोर देखै, निसि दिन को न लेखै,
चंद बिन दिन छबि लागत ऍंध्यारी है।
'आलम कहत आली, अलि फूल हेत चलै,
काँटे सी कटीली बेलि ऐसी प्रीति प्यारी है॥

कारो कान्ह कहत गँवारी ऐसी लागति है,
मोहि वाकी स्यामताई लागत उज्यारी है।
मन की अटक तहाँ, रूप को बिचार कहाँ,
रीझिबे को पैंडो तहाँ बूझ कछू न्यारी है॥

सौरभ सकेलि मेलि केलि ही की बेलि कीन्हीं,
सोभा की सहेली सु अकेली करतार की।
जित ढरकैहौ कान्ह, तितही ढरकि जाय,
साँचे ही सुढारी सब अंगनि सुढार की॥

तपनि हरति 'कवि आलम परस सीरो,
अति ही रसिक रीति जानै रस-चार की।
ससिँ को रसु सानि सोने को सरूप लैके,
अति ही सरस सों सँवारी घनसार की।
सुधा को समुद्र तामें, तुरे है नक्षत्र कैधों,
कुंद की कली की पाँति बीन बीन धरी है।
'आलम कहत ऐन, दामिनी के बीज बये,
बारिज के मध्य मानो मोतिन की लरी है॥

स्वाति ही के बुंद बिम्ब विद्रुम में बास लीन्हों,
ताकी छबि देख मति मोहन की हरी है।
तेरे हँसे दसन की, ऐसी छवि राजति है,
हीरन की खानि मानों, ससी माँहिं करी है॥

कछु न सुहात पै उदास परबस बास,
जाके बस जै तासों जीतहँ पै हारिये॥

'आलम कहै हो हम, दुह विध थकीं कान्ह,
अनदेखैं दुख देखैं धीरज न धारिये॥

कछु लै कहोगे कै, अबोले ही रहोगे लाल,
मन के मरोरे की मन ही मैं मारिये।
मोह सों चितैबो कीजै, चितँ की चाहि कै,
जु मोहनी चितौनी प्यारे मो तन निवारिये॥

जा थल कीन्हें बिहार अनेकन, ता थल काँकरी बैठि चुन्यो करैं।
जा रसना सों करी बहु बातन, ता रसना सो चरित्र गुन्यो करैं॥
'आलम जौन से कुंजन में करी केलि, तहाँ अब सीस धुन्यो करैं।
नैंनन में जो सदा रहते, तिनकी अब कान कहानी सुन्यो करैं॥