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"सफेद रात / आलोक धन्वा" के अवतरणों में अंतर

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जब चांद के नीचे
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जंगल पुकार रहे थे जंगलों को
याद आ रही है वर्षों पहले की<br>
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जंगल की एक रात<br><br>
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ओझल होते हुए<br><br>
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हर कहीं उनके भविष्यहीन तंबू
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कि हमारी शक्ल आज भी विस्थापितों जैसी
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सिर्फ कहने के लिए कोई अपना शहर है
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कोई अपना घर है
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लखनऊ में बहुत कम बच रहा है लखनऊ
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जैसे आंगन छाए रहे मुझमें बचपन से ही<br>
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कानपुर और बनारस और पटना और अलीगढ़
और खुली छतें बुलाती रहीं रात होते ही<br>
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अब इन्हीं शहरों में
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कई तरह की हिंसा कई तरह के बाजार
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कई तरह के सौदाई
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हिंसा
शहर में इस तरह बसे<br>
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और हिंसा की तैयारी
कि परिवार का टूटना ही उसकी बुनियाद हो जैसे<br>
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और हिंसा की ताकत 
न पुरखे साथ आए न गांव न जंगल न जानवर<br>
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शहर में बसने का क्या मतलब है<br>
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एक विशाल शरणार्थी शिविर के दृश्य<br>
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हर कहीं उनके भविष्यहीन तंबू<br>
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हम कैसे सफर में शामिल हैं<br>
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कि हमारी शक्ल आज भी विस्थापितों जैसी<br>
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सिर्फ कहने के लिए कोई अपना शहर है<br>
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कोई अपना घर है<br>
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इसके भीतर भी हम भटकते ही रहते हैं<br><br>
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लखनऊ में बहुत कम बच रहा है लखनऊ<br>
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बहस चल नहीं पाती
इलाहाबाद में बहुत कम इलाहाबाद<br>
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हत्याएं होती हैं
कानपुर और बनारस और पटना और अलीगढ़<br>
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फिर जो बहस चलती है
अब इन्हीं शहरों में<br>
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उनका भी अंत हत्याओं में होता है  
कई तरह की हिंसा कई तरह के बाजार<br>
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भारत में जन्म लेने का
कई तरह के सौदाई<br>
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मैं भी कोई मतलब पाना चाहता था
इनके भीतर इनके आसपास<br>
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अब वह भारत भी नहीं रहा
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जिसमें जन्म लिया 
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हिंसा<br>
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न उर्दू में न पंजाबी में
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पूछो राष्ट्रनिर्माताओं से
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क्या लाहौर फिर बस पाया?
  
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जैसे यह अछूती
वह अब किस मुल्क में है?<br>
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आज की शाम की सफेद रात
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एक सचाई है  
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क्या लाहौर फिर बस पाया?<br><br>
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जैसे यह अछूती<br>
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कहां है वह
आज की शाम की सफेद रात<br>
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हरे आसमान वाला शहर बगदाद
एक सचाई है<br>
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ढूंढो उसे
लाहौर भी मेरी सचाई है<br><br>
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अब वह अरब में कहां है
  
कहां है वह<br>
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पूछो युद्ध सरदारों से
हरे आसमान वाला शहर बगदाद<br>
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इस सफेद हो रही रात मे
ढूंढो उसे<br>
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अब वह अरब में कहां है?<br><br>
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वे तो खजूर का एक पेड भी नहीं उगा सकते
इस सफेद हो रही रात मे<br>
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जितना एक बच्चा ऊंट का चलता है
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ढूह और गुबार से
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अंतरिक्ष की तरह खेलता हुआ 
  
वे तो खजूर का एक पेड भी नहीं उगा सकते<br>
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क्या वे एक ऊंट बना सकते हैं?
वे तो रेत में उतना भी पैदल नहीं चल सकते<br>
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एक गुम्बद एक तरबूज एक ऊंची सुराही
जितना एक बच्चा ऊंट का चलता है<br>
+
एक सोता
ढूह और गुबार से<br>
+
जो धीरे-धीरे चश्मा बना
अंतरिक्ष की तरह खेलता हुआ<br><br>
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एक गली
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जो ऊंची दीवारों के साए में शहर घूमती थी
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और गली में
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सिर पर फिरोजी रूमाल बांधे एक लड़की
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जो फिर कभी उस गली में नहीं दिखेगी 
  
क्या वे एक ऊंट बना सकते हैं?<br>
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अब उसे याद करोगे
एक गुम्बद एक तरबूज एक ऊंची सुराही<br>
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तो वह याद आएगी
एक सोता<br>
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अब तुम्हारी याद ही उसका बगदाद है
जो धीरे-धीरे चश्मा बना<br>
+
तुम्हारी याद ही उसकी गली है
एक गली<br>
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उसकी उम्र है
जो ऊंची दीवारों के साए में शहर घूमती थी<br>
+
उसका फिरोजी रूमाल है 
और गली में<br>
+
सिर पर फिरोजी रूमाल बांधे एक लड़की<br>
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जो फिर कभी उस गली में नहीं दिखेगी<br><br>
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अब उसे याद करोगे<br>
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जब भगत सिंह फांसी के तख्ते की ओर बढ़े  
तो वह याद आएगी<br>
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तो अहिंसा ही थी  
अब तुम्हारी याद ही उसका बगदाद है<br>
+
उनका सबसे मुश्किल सरोकार  
तुम्हारी याद ही उसकी गली है<br>
+
अगर उन्हें कुबूल होता  
उसकी उम्र है<br>
+
युद्ध सरदारों का न्याय  
उसका फिरोजी रूमाल है<br><br>
+
तो वे भी जीवित रह लेते  
 
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बरदाश्त कर लेते  
जब भगत सिंह फांसी के तख्ते की ओर बढ़े<br>
+
धीरे-धीरे उजड़ते रोज मरते हुए  
तो अहिंसा ही थी<br>
+
लाहौर की तरह  
उनका सबसे मुश्किल सरोकार<br>
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बनारस अमुतसर लखनऊ इलाहाबाद  
अगर उन्हें कुबूल होता<br>
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युद्ध सरदारों का न्याय<br>
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तो वे भी जीवित रह लेते<br>
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धीरे-धीरे उजड़ते रोज मरते हुए<br>
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लाहौर की तरह<br>
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बनारस अमुतसर लखनऊ इलाहाबाद<br>
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कानपुर और श्रीनगर की तरह
 
कानपुर और श्रीनगर की तरह
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00:53, 10 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण

पुराने शहर की इस छत पर
पूरे चांद की रात
याद आ रही है वर्षों पहले की
जंगल की एक रात

जब चांद के नीचे
जंगल पुकार रहे थे जंगलों को
और बारहसिंगे
पीछे छूट गए बारहसिंगों को
निर्जन मोड पर ऊंची झाडियों मे
ओझल होते हुए

क्या वे सब अभी तक बचे हुए हैं
पीली मिट्टी के रास्ते और खरहे
महोगनी के घने पेड
तेज महक वाली कड़ी घास
देर तक गोधूलि ओस
रखवारे की झोपड़ी और
उसके ऊपर सात तारे
पूरे चांद की इस शहरी रात में
किसलिए आ रही है याद
जंगल की रात

छत से झांकता हूं नीचे
आधी रात बिखर रही है

दूर-दूर तक चांद की रोशनी

सबसे अधिक खींचते हैं फुटपाथ
खाली खुले आधी रात के बाद के फुटपाथ
जैसे आंगन छाए रहे मुझमें बचपन से ही
और खुली छतें बुलाती रहीं रात होते ही
कहीं भी रहूं
क्या है चांद के उजाले में
इस बिखरती हुई आधी रात में
एक असहायता
जो मुझे कुचलती है और एक उम्मीद
जो तकलीफ जैसी है
शहर में इस तरह बसे
कि परिवार का टूटना ही उसकी बुनियाद हो जैसे
न पुरखे साथ आए न गांव न जंगल न जानवर
शहर में बसने का क्या मतलब है
शहर में ही खत्म हो जाना?
एक विशाल शरणार्थी शिविर के दृश्य
हर कहीं उनके भविष्यहीन तंबू
हम कैसे सफर में शामिल हैं
कि हमारी शक्ल आज भी विस्थापितों जैसी
सिर्फ कहने के लिए कोई अपना शहर है
कोई अपना घर है
इसके भीतर भी हम भटकते ही रहते हैं

लखनऊ में बहुत कम बच रहा है लखनऊ
इलाहाबाद में बहुत कम इलाहाबाद
कानपुर और बनारस और पटना और अलीगढ़
अब इन्हीं शहरों में
कई तरह की हिंसा कई तरह के बाजार
कई तरह के सौदाई
इनके भीतर इनके आसपास
इनसे बहुत दूर बम्बई हैदराबाद अमृतसर
और श्रीनगर तक
हिंसा
और हिंसा की तैयारी
और हिंसा की ताकत

बहस चल नहीं पाती
हत्याएं होती हैं
फिर जो बहस चलती है
उनका भी अंत हत्याओं में होता है
भारत में जन्म लेने का
मैं भी कोई मतलब पाना चाहता था
अब वह भारत भी नहीं रहा
जिसमें जन्म लिया

क्या है इस पूरे चांद के उजाले में
इस बिखरती हुई आधी रात में
जो मेरी सांस
लाहौर और कराची और सिंध तक उलझती है?

क्या लाहौर बच रहा है?
वह अब किस मुल्क में है?
न भारत में न पाकिस्तान में
न उर्दू में न पंजाबी में
पूछो राष्ट्रनिर्माताओं से
क्या लाहौर फिर बस पाया?

जैसे यह अछूती
आज की शाम की सफेद रात
एक सचाई है
लाहौर भी मेरी सचाई है

कहां है वह
हरे आसमान वाला शहर बगदाद
ढूंढो उसे
अब वह अरब में कहां है?

पूछो युद्ध सरदारों से
इस सफेद हो रही रात मे
क्या वे बगदाद को फिर से बना सकते हैं?

वे तो खजूर का एक पेड भी नहीं उगा सकते
वे तो रेत में उतना भी पैदल नहीं चल सकते
जितना एक बच्चा ऊंट का चलता है
ढूह और गुबार से
अंतरिक्ष की तरह खेलता हुआ

क्या वे एक ऊंट बना सकते हैं?
एक गुम्बद एक तरबूज एक ऊंची सुराही
एक सोता
जो धीरे-धीरे चश्मा बना
एक गली
जो ऊंची दीवारों के साए में शहर घूमती थी
और गली में
सिर पर फिरोजी रूमाल बांधे एक लड़की
जो फिर कभी उस गली में नहीं दिखेगी

अब उसे याद करोगे
तो वह याद आएगी
अब तुम्हारी याद ही उसका बगदाद है
तुम्हारी याद ही उसकी गली है
उसकी उम्र है
उसका फिरोजी रूमाल है

जब भगत सिंह फांसी के तख्ते की ओर बढ़े
तो अहिंसा ही थी
उनका सबसे मुश्किल सरोकार
अगर उन्हें कुबूल होता
युद्ध सरदारों का न्याय
तो वे भी जीवित रह लेते
बरदाश्त कर लेते
धीरे-धीरे उजड़ते रोज मरते हुए
लाहौर की तरह
बनारस अमुतसर लखनऊ इलाहाबाद
कानपुर और श्रीनगर की तरह