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"तुम सोच रहे हो बस, / आलोक श्रीवास्तव-१" के अवतरणों में अंतर

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तुम सोच रहे हो बस, बादल की उड़ानों तक,
 
तुम सोच रहे हो बस, बादल की उड़ानों तक,
 
 
मेरी तो निगाहें हैं सूरज के ठिकानों तक।
 
मेरी तो निगाहें हैं सूरज के ठिकानों तक।
 
  
 
टूटे हुए ख़्वाबों की एक लम्बी कहानी है,
 
टूटे हुए ख़्वाबों की एक लम्बी कहानी है,
 
 
शीशे की हवेली से पत्थर के मकानों तक।
 
शीशे की हवेली से पत्थर के मकानों तक।
 
  
 
दिल आम नहीं करता अहसास की ख़ुशबू को,
 
दिल आम नहीं करता अहसास की ख़ुशबू को,
 
 
बेकार ही लाए हम चाहत को ज़ुबानों तक।
 
बेकार ही लाए हम चाहत को ज़ुबानों तक।
 
  
 
लोबान का सौंधापन, चंदन की महक में है,
 
लोबान का सौंधापन, चंदन की महक में है,
 
 
मंदिर का तरन्नुम है, मस्जिद की अज़ानों तक।
 
मंदिर का तरन्नुम है, मस्जिद की अज़ानों तक।
 
  
 
इक ऎसी अदालत है, जो रुह परखती है,
 
इक ऎसी अदालत है, जो रुह परखती है,
 
 
महदूद नहीं रहती वो सिर्फ़ बयानों तक।
 
महदूद नहीं रहती वो सिर्फ़ बयानों तक।
 
  
 
हर वक़्त फ़िज़ाओं में, महसूस करोगे तुम,
 
हर वक़्त फ़िज़ाओं में, महसूस करोगे तुम,
 
 
मैं प्यार की ख़ुशबू हूँ, महकूंगा ज़मानों तक।
 
मैं प्यार की ख़ुशबू हूँ, महकूंगा ज़मानों तक।
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00:59, 10 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण

तुम सोच रहे हो बस, बादल की उड़ानों तक,
मेरी तो निगाहें हैं सूरज के ठिकानों तक।

टूटे हुए ख़्वाबों की एक लम्बी कहानी है,
शीशे की हवेली से पत्थर के मकानों तक।

दिल आम नहीं करता अहसास की ख़ुशबू को,
बेकार ही लाए हम चाहत को ज़ुबानों तक।

लोबान का सौंधापन, चंदन की महक में है,
मंदिर का तरन्नुम है, मस्जिद की अज़ानों तक।

इक ऎसी अदालत है, जो रुह परखती है,
महदूद नहीं रहती वो सिर्फ़ बयानों तक।

हर वक़्त फ़िज़ाओं में, महसूस करोगे तुम,
मैं प्यार की ख़ुशबू हूँ, महकूंगा ज़मानों तक।