भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"कोई तो पीके निकलेगा... / आसी ग़ाज़ीपुरी" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
(नया पृष्ठ: कोई तो पीके निकलेगा, उडे़गी कुछ तो बू मुँह से। दरे-पीरेमुग़ाँ पर म...) |
|||
(2 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 2 अवतरण नहीं दर्शाए गए) | |||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
+ | {{KKGlobal}} | ||
+ | {{KKRachna | ||
+ | |रचनाकार= आसी ग़ाज़ीपुरी | ||
+ | }} | ||
+ | {{KKCatGhazal}} | ||
+ | <poem> | ||
कोई तो पीके निकलेगा, उडे़गी कुछ तो बू मुँह से। | कोई तो पीके निकलेगा, उडे़गी कुछ तो बू मुँह से। | ||
− | |||
दरे-पीरेमुग़ाँ पर मैपरस्ती चलके बिस्तर हो॥ | दरे-पीरेमुग़ाँ पर मैपरस्ती चलके बिस्तर हो॥ | ||
− | |||
किसी के दरपै ‘आसी’ रात रो-रोके यह कहता था-- | किसी के दरपै ‘आसी’ रात रो-रोके यह कहता था-- | ||
− | |||
कि "आखि़र मैं तुम्हारा बन्दा हूँ, तुम बन्दापरवर हो"॥ | कि "आखि़र मैं तुम्हारा बन्दा हूँ, तुम बन्दापरवर हो"॥ | ||
− | + | ०००० | |
− | + | ||
− | + | ||
तुम्हीं सच-सच बता दो कौन था शिरीं की सूरत में। | तुम्हीं सच-सच बता दो कौन था शिरीं की सूरत में। | ||
− | |||
कि मुश्तेख़ाक की हसरत में कोई कोहकन क्यों हो॥ | कि मुश्तेख़ाक की हसरत में कोई कोहकन क्यों हो॥ | ||
− | |||
− | |||
टुकडे़ होकर जो मिली, कोहकनो-मजनूँ को। | टुकडे़ होकर जो मिली, कोहकनो-मजनूँ को। | ||
− | |||
कहीं मेरी ही वो फूटी हुई तक़दीर न हो॥ | कहीं मेरी ही वो फूटी हुई तक़दीर न हो॥ | ||
+ | </poem> |
01:13, 10 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
कोई तो पीके निकलेगा, उडे़गी कुछ तो बू मुँह से।
दरे-पीरेमुग़ाँ पर मैपरस्ती चलके बिस्तर हो॥
किसी के दरपै ‘आसी’ रात रो-रोके यह कहता था--
कि "आखि़र मैं तुम्हारा बन्दा हूँ, तुम बन्दापरवर हो"॥
००००
तुम्हीं सच-सच बता दो कौन था शिरीं की सूरत में।
कि मुश्तेख़ाक की हसरत में कोई कोहकन क्यों हो॥
टुकडे़ होकर जो मिली, कोहकनो-मजनूँ को।
कहीं मेरी ही वो फूटी हुई तक़दीर न हो॥