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"क़ुर्बतों में भी जुदाई के ज़माने माँगे / फ़राज़" के अवतरणों में अंतर
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|रचनाकार=अहमद फ़राज़ | |रचनाकार=अहमद फ़राज़ | ||
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17:29, 11 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
क़ुर्बतों<ref>सामीप्य</ref> में भी जुदाई के ज़माने माँगे
दिल वो बेमेह्र<ref>निर्दयी</ref> कि रोने के बहाने माँगे
अपना ये हाल के जी हार चुके लुट भी चुके
और मुहब्बत वही अन्दाज़ पुराने माँगे
यही दिल था कि तरसता था मरासिम <ref>प्रेम-व्यवहार,सम्बन्ध</ref>के लिए
अब यही तर्के-तल्लुक़<ref>संबंध-विच्छेद</ref> के बहाने माँगे
हम न होते तो किसी और के चर्चे होते
खल्क़त-ए-शहर<ref>शहरी जनता</ref> तो कहने को फ़साने माँगे
ज़िन्दगी हम तेरे दाग़ों से रहे शर्मिन्दा
और तू है कि सदा आइनेख़ाने<ref>वह भवन जिसके चारों ओर दर्पण लगे हों</ref>माँगे
दिल किसी हाल पे क़ाने<ref>आत्मसंतोषी</ref> ही नहीं जान-ए-"फ़राज़"
मिल गये तुम भी तो क्या और न जाने माँगे
शब्दार्थ
<references/>