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|रचनाकार=नोमान शौक़
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क़तरा क़तरा
टपकता रहता है
किसी भयानक रात का स्याह दुख
अन्तर्मन के किसी कोने में
क़तरा क़तरा<br />जाने कबसेटपकता रहता पल रही होती है<br />किसी भयानक रात का स्याह दुख<br />एक कविता अन्दर ही अन्दरअन्तर्मन और एक दिन अचानकरास्ता रोक कर खड़ी हो जाती हैहम नज़रें बचाते हैंभागना चाहते हैं दामन झटक करतो जकड़ लेती है पाँवबाध्य कर देती है क़लम कोघिसटते, थके पैरों सेसादा काग़ज़ पर दौड़ने के किसी कोने मे<br />लिये।
जाने कबसे<br />पल रही होती है<br />एक कविता अन्दर ही अन्दर<br />पता भी नहीं चलताऔर अवचेतन का एक दिन अचानक<br />लम्हारास्ता रोक कर खड़ी हो जाती जुड़ जाता है<br />हम नज़रें बचाते हैं<br />भागना चाहते हैं दामन झटक कर<br />ते जकड़ लेती है पाँव<br />बाध्य कर देती है क़लम को<br />घिसटते, थके पैरों अस्तित्व से<br />सादा काग़ज़ पर दौड़ने हमेशा के लिये।<br />
पता भी नहीं चलता<br />और अवचेतन का एक लम्हा<br />जुड़ जाता है अस्तित्व से <br />हमेशा के लिये।<br /> अनचाहे गर्भ की तरह होती है<br />अनचाही कविता भी<br />लेकिन बेचारे कवि के लिये तो<br />अस्पताल के दरवाज़े भी बंद होते हैं<br />
निजात के रास्तों की तरह।
</poem>
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