भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"अजीब तर्ज़े-मुलाक़ात / परवीन शाकिर" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
पंक्ति 4: पंक्ति 4:
 
|संग्रह=
 
|संग्रह=
 
}}
 
}}
 +
{{KKCatNazm}}
 +
<poem>
 +
अजीब तर्ज़-ए-मुलाकात अब के बार रही
 +
तुम्हीं थे बदले हुए या मेरी निगाहें थीं
 +
तुम्हारी नजरों से लगता था जैसे मेरे बजाए
 +
तुम्हारे ओहदे की देनें तुम्हें मुबारक थीं
  
अजीब तर्ज-ए-मुलाकात अब के बार रही<br>
+
सो तुमने मेरा स्वागत उसी तरह से किया
तुम्हीं थे बदले हुए या मेरी निगाहें थीं<br>
+
जो अफ्सरान-ए-हुकूमत के ऐतक़ाद में है
तुम्हारी नजरों से लगता था जैसे मेरे बजाए<br>
+
तकल्लुफ़न मेरे नज़दीक आ के बैठ गए
तुम्हारे ओहदे की देनें तुम्हें मुबारक थीं<br>
+
फिर एहतराम<ref>आदर</ref> से मौसम का ज़िक्र छेड़ दिया
  
सो तुमने मेरा स्वागत उसी तरह से किया<br>
 
जो अफ्सरान-ए-हुकूमत के ऐतक़ाद में है<br>
 
तकल्लुफ़ान मेरे नजदीक आ के बैठ गए<br>
 
फिर 1एहतराम से मौसम का जिक्र छेड़ दिया<br>
 
1आदर <br>
 
  
कुछ उस के बाद सियासत की बात भी निकली<br>
+
कुछ उस के बाद सियासत की बात भी निकली
अदब पर भी दो चार तबसरे फ़रमाए<br>
+
अदब पर भी दो चार तबसरे फ़रमाए
मगर तुमने ना हमेशा कि तरह ये पूछा<br>
+
मगर तुमने हमेशा कि तरह ये पूछा
कि वक्त कैसा गुजरता है तेरा जान-ए-हयात ?<br><br>
+
कि वक्त कैसा गुजरता है तेरा जान-ए-हयात ?
  
पहर दिन की 2अज़ीयत में कितनी शिद्दत है<br>
+
पहर दिन की अज़ीयत<ref>अत्याचार</ref> में कितनी शिद्दत है
उजाड़ रात की तन्हाई क्या क़यामत है<br>
+
उजाड़ रात की तन्हाई क्या क़यामत है
शबों की सुस्त रावी का तुझे भी शिकवा है<br>
+
शबों की सुस्त रावी का तुझे भी शिकवा है
गम-ए-फिराक के किस्से 3निशात-ए-वस्ल का जिक्र<br>
+
गम-ए-फिराक़ के किस्से निशात-ए-वस्ल<ref>मिलन की खुशी</ref> का ज़िक्र
रवायतें ही सही कोई बात तो करते.....<br>
+
रवायतें ही सही कोई बात तो करते.....
 
+
</poem>
2अत्याचार
+
{{KKMeaning}}
 
+
3मिलन की खुशी
+

19:57, 11 नवम्बर 2009 का अवतरण



अजीब तर्ज़-ए-मुलाकात अब के बार रही
तुम्हीं थे बदले हुए या मेरी निगाहें थीं
तुम्हारी नजरों से लगता था जैसे मेरे बजाए
तुम्हारे ओहदे की देनें तुम्हें मुबारक थीं

सो तुमने मेरा स्वागत उसी तरह से किया
जो अफ्सरान-ए-हुकूमत के ऐतक़ाद में है
तकल्लुफ़न मेरे नज़दीक आ के बैठ गए
फिर एहतराम<ref>आदर</ref> से मौसम का ज़िक्र छेड़ दिया


कुछ उस के बाद सियासत की बात भी निकली
अदब पर भी दो चार तबसरे फ़रमाए
मगर तुमने न हमेशा कि तरह ये पूछा
कि वक्त कैसा गुजरता है तेरा जान-ए-हयात ?

पहर दिन की अज़ीयत<ref>अत्याचार</ref> में कितनी शिद्दत है
उजाड़ रात की तन्हाई क्या क़यामत है
शबों की सुस्त रावी का तुझे भी शिकवा है
गम-ए-फिराक़ के किस्से निशात-ए-वस्ल<ref>मिलन की खुशी</ref> का ज़िक्र
रवायतें ही सही कोई बात तो करते.....

शब्दार्थ
<references/>