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"वो सुख तो कभी था ही नहीं / श्रद्धा जैन" के अवतरणों में अंतर
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लड़खड़ाते क़दमों को देख लोग मुस्कराते | लड़खड़ाते क़दमों को देख लोग मुस्कराते | ||
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गिरे देखकर अपना हाथ बढ़ाता | गिरे देखकर अपना हाथ बढ़ाता | ||
जिसकी तलाश में खुद को गिराती रही | जिसकी तलाश में खुद को गिराती रही |
17:46, 13 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
जिसकी तलाश मुझे भटकाती रही,
चाह में खुद को जलाती रही
वो सुख तो कभी था ही नहीं
बेसबब उन पथरीली राहों पर चलकर
खुद को ज़ख़्मी बनाती रही,
कभी गिरती कभी सम्हल जाती
सम्हल कर चलती तो कभी लड़खड़ाती
लड़खड़ाते क़दमों को देख लोग मुस्कराते
कोई कहता शराबी तो कई पागल बुलाते
पर कोई न होता, जो मुझे संभाल पाता
गिरे देखकर अपना हाथ बढ़ाता
जिसकी तलाश में खुद को गिराती रही
वो सुख तो कभी था ही नहीं
अधूरे एहसास के साथ मैं चलती रही,
मिलन की आस लिए कल-कल बहती रही
कभी किसी झील, तो कभी नहर से मिली ,
कभी झरने में मिलकर, संग-संग गिरी
मिला न वो, जो मुझमे मिलकर मुझे संवारे
मेरे रूप का श्रृंगार कर इसे और निखारे
जिसके लिए अपने वज़ूद को मिटाती रही
वो सुख तो कभी था ही नहीं