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"गुजर गया एक और दिन / उमाकांत मालवीय" के अवतरणों में अंतर

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गुजर गया एक और दिन,  
 
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रोज की तरह ।  
 
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चुगली औ’ कोरी तारीफ़,  
 
चुगली औ’ कोरी तारीफ़,  
 
 
बस यही किया ।  
 
बस यही किया ।  
 
 
जोड़े हैं काफिये-रदीफ़  
 
जोड़े हैं काफिये-रदीफ़  
 
 
कुछ नहीं किया ।  
 
कुछ नहीं किया ।  
 
 
तौबा कर आज फिर हुई,  
 
तौबा कर आज फिर हुई,  
 
 
झूठ से सुलह ।  
 
झूठ से सुलह ।  
 
 
 
  
 
याद रहा महज नून-तेल,  
 
याद रहा महज नून-तेल,  
 
 
और कुछ नहीं  
 
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अफसर के सामने दलेल,  
 
अफसर के सामने दलेल,  
 
 
नित्य क्रम यही  
 
नित्य क्रम यही  
 
 
शब्द बचे, अर्थ खो गये,  
 
शब्द बचे, अर्थ खो गये,  
 
 
ज्यों मिलन-विरह ।  
 
ज्यों मिलन-विरह ।  
 
 
 
  
 
रह गया न कोई अहसास  
 
रह गया न कोई अहसास  
 
 
क्या बुरा-भला  
 
क्या बुरा-भला  
 
 
छाँछ पर न कोई विश्वास  
 
छाँछ पर न कोई विश्वास  
 
 
दूध का जला  
 
दूध का जला  
 
 
 
कोल्हू की परिधि फाइलें  
 
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मेज की सतह ।  
 
मेज की सतह ।  
 
 
 
  
 
‘ठकुर सुहाती’ जुड़ी जमात,  
 
‘ठकुर सुहाती’ जुड़ी जमात,  
 
 
यहाँ यह मजा ।  
 
यहाँ यह मजा ।  
 
 
मुँहदेखी, यदि न करो बात  
 
मुँहदेखी, यदि न करो बात  
 
 
तो मिले सजा ।  
 
तो मिले सजा ।  
 
 
सिर्फ बधिर, अंधे, गूँगों –  
 
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के लिए जगह ।  
 
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डरा नहीं, आये तूफान,  
 
डरा नहीं, आये तूफान,  
 
 
उमस क्या करुँ ?  
 
उमस क्या करुँ ?  
 
 
बंधक हैं अहं स्वाभिमान,  
 
बंधक हैं अहं स्वाभिमान,  
 
 
घुटूँ औ’ मरूँ  
 
घुटूँ औ’ मरूँ  
 
 
चर्चाएँ नित अभाव की –  
 
चर्चाएँ नित अभाव की –  
 
 
शाम औ’ सुबह।  
 
शाम औ’ सुबह।  
 
 
 
  
 
केवल पुंसत्वहीन, क्रोध,  
 
केवल पुंसत्वहीन, क्रोध,  
 
 
और बेबसी ।  
 
और बेबसी ।  
 
 
अपनी सीमाओं का बोध  
 
अपनी सीमाओं का बोध  
 
 
खोखली हँसी  
 
खोखली हँसी  
 
 
झिड़क दिया बेवा माँ को  
 
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उफ्, बिलावजह ।
 
उफ्, बिलावजह ।
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20:15, 13 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण

गुजर गया एक और दिन,
रोज की तरह ।

चुगली औ’ कोरी तारीफ़,
बस यही किया ।
जोड़े हैं काफिये-रदीफ़
कुछ नहीं किया ।
तौबा कर आज फिर हुई,
झूठ से सुलह ।

याद रहा महज नून-तेल,
और कुछ नहीं
अफसर के सामने दलेल,
नित्य क्रम यही
शब्द बचे, अर्थ खो गये,
ज्यों मिलन-विरह ।

रह गया न कोई अहसास
क्या बुरा-भला
छाँछ पर न कोई विश्वास
दूध का जला
कोल्हू की परिधि फाइलें
मेज की सतह ।

‘ठकुर सुहाती’ जुड़ी जमात,
यहाँ यह मजा ।
मुँहदेखी, यदि न करो बात
तो मिले सजा ।
सिर्फ बधिर, अंधे, गूँगों –
के लिए जगह ।

डरा नहीं, आये तूफान,
उमस क्या करुँ ?
बंधक हैं अहं स्वाभिमान,
घुटूँ औ’ मरूँ
चर्चाएँ नित अभाव की –
शाम औ’ सुबह।

केवल पुंसत्वहीन, क्रोध,
और बेबसी ।
अपनी सीमाओं का बोध
खोखली हँसी
झिड़क दिया बेवा माँ को
उफ्, बिलावजह ।