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− | एक चादर पर पन्द्रह शिशु लिटाये गए हैं
| + | आशवित्ज़ के बाद |
− | वे उन पैंतालीस में से हैं
| + | कविता संभव नहीं रह गयी थी. |
− | जो दंगों के बाद के इन कुछ हफ़्तों में
| + | इसे संभव बनाना पड़ा था |
− | एक राहत शिविर में पैदा हुए हैं
| + | शांति की दुहाई ने नहीं, |
| + | रहम की गुहारों ने नहीं, |
| + | दुआओं ने नहीं, प्रार्थनाओं ने नहीं, |
| + | कविता को संभव बनाया था |
| + | न्याय और मानवता के पक्ष में खडे होकर |
| + | लड़ने वाले करोडो नें अपने कुर्बानियों से. |
| + | लौह-मुष्टि ने ही चूर किया था वह कपाल |
| + | जहाँ बनती थी मानवद्रोही योजनाएँ |
| + | और पलते थे नरसंहारक रक्तपिपासु सपने. |
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− | पिछले कई बरसों से तुम जली हुई
| + | गुजरात के बाद कविता सम्भव नहीं. |
− | फर्श पर गिरी या रखी हुई लाशों की तस्वीरें ही देखते आये हो
| + | उसे संभव बनाना होगा. |
− | इधर लगभग हर हफ़्ते देखते हो
| + | कविता को सम्भव बनाने की यह कार्रवाई |
− | और हालात ऐसे हैं कि उनकी तादाद और भयावहता इतनी बढ़ जाये | + | होगी कविता के प्रदेश के बाहर. |
− | कि उनके फ़ोटो न लिए जा सकें
| + | हत्यारों की अभ्यर्थना में झुके रहने से |
− | और उनमें शायद इस अनाम छायाकार के साथ-साथ | + | बचने के लिए देश से बाहर |
− | तुम सरीखे देखनेवाले की लाशें भी हों
| + | देश-देश भटकने या कहीं और किसी गैर देश की |
| + | सीमा पर आत्महत्या करने को विवश होने से |
| + | बेहतर है अपनी जनता के साथ होना |
| + | और उन्हें याद करना जिन्होंने |
| + | जान बचाने के लिए नहीं, बल्कि जान देने के लिए |
| + | कूच किया था अपने-अपने देशों से |
| + | सुदूर स्पेन की ओर. |
| + | कविता को यदि संभव बनाना है २००२ में |
| + | गुजरात के बाद |
| + | और अफगानिस्तान के बाद |
| + | और फिलिस्तीन के बाद, |
| + | तो कविता के प्रदेश से बाहर |
| + | बहुत कुछ करना है. |
| + | चलोगे कवि-मित्रो, |
| + | इतिहास के निर्णय की प्रतीक्षा किये बिना ? |
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− | तस्वीरें और भी हैं
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− | सिर से पैर तक जली हुई बच्ची की
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− | जिसकी दो सहमी हुई आँखें ही दिख रही हैं पट्टियों के बीच से
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− | अपने घर के मलबे में बैठी शून्य में ताकती माँ-बेटी की
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− | जान बचा लेने की भीख माँगते घिरे हुए लोगों की
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− | लेकिन अभी तो तुम्हारे सामने ये पन्द्रह बच्चे हैं
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− | और ये औरतें जो इनकी माँ बुआ नानी दादी हो सकती हैं
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− | या कोई रिश्तेदार नहीं महज़ औरतें
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− | जो इन्हें घेरकर खड़ी हुई हैं या उकडूँ बैठी हुई हैं
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− | इनके चेहरों पर वह कोमलता देखो वह ख़ुशी वह हल्का-सा गर्व
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− | और उसमें जो गहरा दुख मिला हुआ है
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− | उसके साथ तुम भी वह ख़ुशी महसूस करो और थर्रा जाओ
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− | देखो वे सारे शिशु कितने खुश हैं वे मुस्करा रहे हैं
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− | उन औरतों को सिर्फ़ देखकर या पहचान कर
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− | या उनके प्यार-भरे सम्बोधन सुनकर
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− | नन्हे हाथ कुछ उठे हुए छोटे-छोटे पाँव कुछ मुड़े हुए
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− | साफ़ है वे गोदी में आना चाहते हैं
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− | उन्हें पता नहीं है जिस घर और कुनबे के वे हैं
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− | उनके साथ क्या हुआ है
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− | और तुम यह कह नहीं सकते कि उनके पिता ज़िन्दा ही हों
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− | या घर के दूसरे मर्द
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− | या कि उन्हें जनम देने के बाद उनकी माँएँ भी बचीं या नहीं
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− | चूँकि ये एक मुस्लिम राहत शिविर में पैदा हुए हैं
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− | इसीलिए इन्हें मुसलमान शिशु कहा जा सकता है
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− | वरना इस फ़ोटो से पता नहीं चल पा रहा है
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− | कि ये किसकी सन्तान हैं
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− | 28 फरवरी को ऐसा फ़ोटो यदि गोधरा स्टेशन पर लिया जा सकता
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− | तो ये हिन्दू माने जाते
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− | क्योंकि इन औरतों के चेहरों और पहनावे से
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− | हिन्दू-मुसलमान की शिनाख्त नहीं हो पा रही है
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− | इस देश में उन तस्वीरों की किल्लत कभी नहीं होगी
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− | जो तुम्हारा कलेजा चाक़ कर दें
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− | शर्मिन्दा और ज़र्द कर दें तुम्हें
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− | तुम्हारे सोचने कहने महसूस करने की व्यर्थता का एहसास दिलाती रहें
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− | जिनका एक भी दाँत अभी आया नहीं है
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− | तुम क्यों इस क़दर खुश और विचलित हो उन्हें देखकर
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− | क्या इसलिए कि वे तुम्हें अपने बच्चों के छुटपन की तस्वीर लगते हैं
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− | या ख़ुद तुम्हारी अपनी पहली फ़ोटो की तरह
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− | जिसमें तुम माँ की गोद में इसी तरह थोड़े हाथ-पैर हिला बैठे थे
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− | या कि फिर उन घिसी-पिटी उक्तियों के मुताबिक़ सोचकर
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− | कि बच्चों के कोई धर्म सम्प्रदाय जाति वर्ग भाषा संस्कृति नहीं होते
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− | लेकिन तुमने यह भी सोचा कि जिन्होंने गोधरा में जलाया व अहमदाबाद में
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− | यदि उनकी भी बचपन या पालने की तस्वीर देखोगे
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− | तो वे भी इतने ही प्यारे लगेंगे और मार्मिक
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− | और कितना विचित्र चमत्कार लगता है तुम्हें
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− | कि राहत शिविर में भी इतने और ऐसे मासूम बच्चे जन्म ले सकते हैं
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− | निहत्थे और अछूते
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− | और ये ऐसे पहले शिशु नहीं हैं
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− | इनसे भी कठिन और अमानवीय हालात में
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− | औरतों और मर्दों को बनाया है बच्चों ने माँ-बाप
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− | बहुत सारी समस्याएँ पैदा करते आये हैं ये बच्चे
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− | जो बड़े हुए हैं और भी कहर बरपा करते हुए
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− | लेकिन इन्सानियत भी तभी रहती आ पायी है
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− | इस तस्वीर के इन पन्द्रह बच्चों में लेकिन ऐसा क्या है
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− | की लगता है दीवानावार पहुँच जाऊँ इनके पास
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− | कोई ऐसी अगली गाड़ी पकड़कर जिसके जलाये जाने की कोई वजह न हो
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− | इनकी माँओं के सामने चुपचाप खड़ा रहूँ गुनहगार
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− | गान्धारी के सामने किसी नखजले विजेता के हिमायती की तरह
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− | या ले जाऊँ इन बच्चों को उठाकर सौंप दूँ हिन्दुओं को
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− | और बदले में ऐसे ही बच्चे हिन्दुओं के बाँट दूँ इनमें
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− | या ऐसे तमाम बच्चों को गड्डमड्ड कर दूँ
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− | और बुलाऊँ लोगों को उनमें हिन्दू-मुसलमान पहचानने के लिए
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− | लेकिन ऐसी भावुक असम्भव ख़तरनाक हरकतें बहुत सोची गयी हैं
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− | और उससे बहुत हो नहीं पाया है
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− | लेकिन क्या करूँ बचाऊँ इन शिशुओं को
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− | किसी जलते हुए डिब्बे फुँकते हुए घर धधकते हुए मुहल्ले में
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− | पायी जानेवाली अगली झुलसी हुई लाशें बनने से
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− | जिनके हाथ-पैर इन्हीं की तरह मुड़े हुए होते हैं
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− | मानो उठा लेने को कह रहे हों या दुआ माँग रहे हों
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− | क्या इन बच्चों से कहूँ बच्चों बड़े होकर उस वहशियत से बचो
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− | जो हममें थी बचो हमारी नफ़रतों हमारे बुग्ज़ हमारी जहालतों से बचो
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− | यदि तुम्हे नफ़रत करनी ही है तो हम जैसों से करो
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− | और उस सबसे जिसने हमें वैसा बना डाला था
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− | तुम्हें अगर इन्तकाम लेना ही है तो हम सरीखों से लो
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− | जिनसे तुम सरीखे बचाये नहीं जा सके थे
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− | लेकिन यह सब क्या पहले नहीं कहा जा चुका है
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− | फिर भी फिर भी यह हर बार कहा जाना ही चाहिए
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− | इन बच्चों को सिर्फ़ बचाना ही ज़रूरी नहीं है
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− | वह ख़ुशी कैसे बचे वह मुस्कान कैसे
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− | जो अभी फ़क़त अपने आसपास महज़ इन्सानों को देख इनके चेहरों पर है
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− | और नामुमकिन उम्मीदें जगाती है
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− | कितना भी तार-तार क्यों न लगे यह
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− | लेकिन हाँ ये उम्मीद हैं हमारे भविष्य-जैसी किसी चीज़ की
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− | हाँ इन्हें देखकर फिर वह पस्त जज़्बा उभरता है आदमी को बचाने का
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− | हाँ ये यकीन दिलाते-से लगते हैं कि इन्हें देखकर जो ममता जागती है
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− | अन्ततः शायद वही बचा पायेगी इन्हें और हमें
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− | सब बताया जाये इन्हें क्योंकि वैसे भी ये जान लेंगे
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− | यह उन पर छोड़ दिया जाये कि वे क्या तय करते हैं फिर
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− | लेकिन ये जो अभी नहीं जानते कि वे क्या-क्या से बच पाये हैं
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− | उन्हें बचायें क्योंकि एक दिन शायद इन्हीं में से कुछ बचायेंगे
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− | अपनों को हम जैसों को और उस सबको जो बचाने लायक़ है
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− | और शायद बनायेंगे वह
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− | जो मिटा दिया जाता है जला दिया जाता है फिर भी बार-बार बनता है
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− | जनमता हुआ
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