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"राजनीति / रामधारी सिंह "दिनकर"" के अवतरणों में अंतर

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मंत्रियों के गुड़ अनोखे जानते हो?
 
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वे न तो गाते, बजाते, नाचते हैं,
 
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और खबरों मे सिवा कुछ भी नहीं पढ़ते।
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खूब चमकते हैं जब तक अधिकार न मिलता।
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मंत्री बनने पर दोनों ही दब जाते हैं।
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शासन के यंत्रों पर रक्खो आँख कड़ी,
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::छिपे अगर हों दोष, उन्हें खोलते चलो।
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प्रजातंत्र का क्षीर प्रजा की वाणी है
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::जो कुछ हो बोलना, अभय बोलते चलो।
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मंत्री के शासन की यह महिमा विचित्र है,
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जब तक इस पर रहो, नहीं दिखलाई देगी
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शासन की हीनता, न भ्रष्टाचार किसी का।
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किन्तु, उतरते ही उससे सहसा हो जाता
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सारा शासन-चक्र भयानक पुँज पाप का,
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और शासकों का दल चोर नजर आता है।
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16:00, 21 नवम्बर 2009 का अवतरण

(१)
सावधान रखते स्वदेश को और बढ़ाते मान भी,
राजदूत हैं आँख देश की और राज्य के कान भी।

(२)
तुम्हें बताऊँ यह कि कूटनीतिज्ञ कौन है?
वह जो रखता याद जन्मदिन तो रानी का,
लेकिन, उसकी वयस भूल जाता है।

(३)
लगा राजनीतिज्ञ रहा अगले चुनाव पर घात,
राजपुरुष सोचते किन्तु, अगली पीढ़ी की बात।

(४)
हो जाता नरता का तब इतिहास बड़ा,
बड़े लोग जब पर्वत से टकराते हैं।
नर को देंगे मान भला वे क्या, जो जन
एक दूसरे को नाहक धकियाते हैं?

(५)
’हाँ’ बोले तो ’शायद’ समझो, स्यात कहे तो ’ना’ जानो।
और कहे यदि ’ना’ तो उसको कूटनीतिविद मत मानो।

(६)
मंत्रियों के गुड़ अनोखे जानते हो?
वे न तो गाते, बजाते, नाचते हैं,
और खबरों के सिवा कुछ भी नहीं पढ़ते।
हर घड़ी चिन्ता उन्हें इस बात की रहती
कि कैसे और लोगों से जरा ऊँचे दिखें हम।
इसलिये ही, बात मुर्दों की तरह करते सदा वे
और ये धनवान रिक्शों पर नहीं चढ़ते।

(७)
शक्ति और सिद्धान्त राजनीतिज्ञ जनों में
खूब चमकते हैं जब तक अधिकार न मिलता।
मंत्री बनने पर दोनों ही दब जाते हैं।

(८)
शासन के यंत्रों पर रक्खो आँख कड़ी,
छिपे अगर हों दोष, उन्हें खोलते चलो।
प्रजातंत्र का क्षीर प्रजा की वाणी है
जो कुछ हो बोलना, अभय बोलते चलो।

(९)
मंत्री के शासन की यह महिमा विचित्र है,
जब तक इस पर रहो, नहीं दिखलाई देगी
शासन की हीनता, न भ्रष्टाचार किसी का।
किन्तु, उतरते ही उससे सहसा हो जाता
सारा शासन-चक्र भयानक पुँज पाप का,
और शासकों का दल चोर नजर आता है।

(१०)