"जनतन्त्र का जन्म / रामधारी सिंह "दिनकर"" के अवतरणों में अंतर
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|रचनाकार=रामधारी सिंह "दिनकर" | |रचनाकार=रामधारी सिंह "दिनकर" | ||
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− | सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी, | + | {{KKCatKavita}} |
− | मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है; | + | <poem> |
− | दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, | + | सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी, |
− | सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। | + | मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है; |
+ | दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, | ||
+ | सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। | ||
− | जनता?हां,मिट्टी की अबोध मूरतें वही, | + | जनता?हां,मिट्टी की अबोध मूरतें वही, |
− | जाडे-पाले की कसक सदा सहनेवाली, | + | जाडे-पाले की कसक सदा सहनेवाली, |
− | जब अंग-अंग में लगे सांप हो चुस रहे | + | जब अंग-अंग में लगे सांप हो चुस रहे |
− | तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहनेवाली। | + | तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहनेवाली। |
− | जनता?हां,लंबी - बडी जीभ की वही कसम, | + | |
− | "जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।" | + | जनता?हां,लंबी - बडी जीभ की वही कसम, |
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− | अथवा कोई दूधमुंही जिसे बहलाने के | + | मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं, |
− | जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में। | + | जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में; |
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− | + | लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं, | |
− | + | जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है; | |
− | + | दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, | |
− | + | सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। | |
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− | + | हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती, | |
− | दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, | + | सांसों के बल से ताज हवा में उड़ता है, |
− | सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। | + | जनता की रोके राह,समय में ताव कहां? |
+ | वह जिधर चाहती,काल उधर ही मुड़ता है। | ||
+ | अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अंधकार | ||
+ | बीता;गवाक्ष अंबर के दहके जाते हैं; | ||
+ | यह और नहीं कोई,जनता के स्वप्न अजय | ||
+ | चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं। | ||
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+ | सब से विराट जनतंत्र जगत का आ पहुंचा, | ||
+ | तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो | ||
+ | अभिषेक आज राजा का नहीं,प्रजा का है, | ||
+ | तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो। | ||
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+ | आरती लिये तू किसे ढूंढता है मूरख, | ||
+ | मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में? | ||
+ | देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे, | ||
+ | देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में। | ||
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+ | फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं, | ||
+ | धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है; | ||
+ | दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, | ||
+ | सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। | ||
(26जनवरी,1950ई.) | (26जनवरी,1950ई.) | ||
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19:45, 21 नवम्बर 2009 का अवतरण
सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
जनता?हां,मिट्टी की अबोध मूरतें वही,
जाडे-पाले की कसक सदा सहनेवाली,
जब अंग-अंग में लगे सांप हो चुस रहे
तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहनेवाली।
जनता?हां,लंबी - बडी जीभ की वही कसम,
"जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।"
"सो ठीक,मगर,आखिर,इस पर जनमत क्या है?"
'है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है?"
मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं,
जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में;
अथवा कोई दूधमुंही जिसे बहलाने के
जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में।
लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं,
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती,
सांसों के बल से ताज हवा में उड़ता है,
जनता की रोके राह,समय में ताव कहां?
वह जिधर चाहती,काल उधर ही मुड़ता है।
अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अंधकार
बीता;गवाक्ष अंबर के दहके जाते हैं;
यह और नहीं कोई,जनता के स्वप्न अजय
चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं।
सब से विराट जनतंत्र जगत का आ पहुंचा,
तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो
अभिषेक आज राजा का नहीं,प्रजा का है,
तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो।
आरती लिये तू किसे ढूंढता है मूरख,
मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में?
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे,
देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में।
फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं,
धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है;
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
(26जनवरी,1950ई.)