भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"रसवन्ती (कविता) / रामधारी सिंह "दिनकर"" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामधारी सिंह "दिनकर" }} अरी ओ रसवन्ती सुकुमार !<br><br> लिये ...)
 
 
(एक अन्य सदस्य द्वारा किये गये बीच के 5 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 2: पंक्ति 2:
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
 
|रचनाकार=रामधारी सिंह "दिनकर"
 
|रचनाकार=रामधारी सिंह "दिनकर"
 +
|संग्रह=रसवन्ती / रामधारी सिंह "दिनकर"
 
}}
 
}}
 +
{{KKCatKavita}}
 +
<poem>
 +
अरी ओ रसवन्ती सुकुमार ! 
  
अरी ओ रसवन्ती सुकुमार !<br><br>
+
लिये क्रीड़ा-वंशी दिन-रात 
 +
पलातक शिशु-सा मैं अनजान, 
 +
कर्म के कोलाहल से दूर 
 +
फिरा गाता फूलों के गान। 
  
लिये कीड़ा-वंशी दिन-रात <br>
+
कोकिलों ने सिखलाया कभी 
पलातक शिशु-सा मैं अनजान, <br>
+
माधवी-कु़ञ्नों का मधु राग,
कर्म के कोलाहल से दूर <br>
+
कण्ठ में आ बैठी अज्ञात 
फिरा गाता फूलों के गान। <br><br>
+
कभी बाड़व की दाहक आग। 
  
कोकिलों ने सिखलाया कभी <br>
+
पत्तियों फूलों की सुकुमार
माधवी-कु़ञ्नों का मधु राग, <br>
+
गयीं हीरे-से दिल को चीर,
कण्ठ में आ बैठी अज्ञात <br>
+
कभी कलिकाओं के मुख देख
कभी बाड़व की दाहक आग। <br><br>
+
 
+
पत्तियों फूलों की सुकुमार <br>
+
गयीं हीरे-से दिल को चीर, <br>
+
कभी कलिकाओं के मुख देख <br>
+
 
अचानक ढुलक पड़ा दृग-नीर।
 
अचानक ढुलक पड़ा दृग-नीर।
 +
 +
तॄणों में कभी  खोजता फिरा 
 +
विकल मानवता का कल्याण, 
 +
बैठ खण्डहर मे करता रहा 
 +
कभी निशि-भर अतीत का ध्यान. 
 +
 +
श्रवण कर चलदल-सा उर फटा
 +
दलित देशों का हाहाकार,
 +
देखकर सिरपर मारा हाथ 
 +
सभ्यता का जलता श्रृंगार. 
 +
</poem>

22:59, 21 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण

अरी ओ रसवन्ती सुकुमार !

लिये क्रीड़ा-वंशी दिन-रात
पलातक शिशु-सा मैं अनजान,
कर्म के कोलाहल से दूर
फिरा गाता फूलों के गान।

कोकिलों ने सिखलाया कभी
माधवी-कु़ञ्नों का मधु राग,
कण्ठ में आ बैठी अज्ञात
कभी बाड़व की दाहक आग।

पत्तियों फूलों की सुकुमार
गयीं हीरे-से दिल को चीर,
कभी कलिकाओं के मुख देख
अचानक ढुलक पड़ा दृग-नीर।

तॄणों में कभी खोजता फिरा
विकल मानवता का कल्याण,
बैठ खण्डहर मे करता रहा
कभी निशि-भर अतीत का ध्यान.

श्रवण कर चलदल-सा उर फटा
दलित देशों का हाहाकार,
देखकर सिरपर मारा हाथ
सभ्यता का जलता श्रृंगार.