"लोहे के पेड़ हरे होंगे / रामधारी सिंह "दिनकर"" के अवतरणों में अंतर
(2 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 5 अवतरण नहीं दर्शाए गए) | |||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
− | लोहे के पेड़ हरे होंगे, तू गान प्रेम का गाता चल, | + | {{KKGlobal}} |
− | + | {{KKRachna | |
− | नम होगी यह मिट्टी ज़रूर, आँसू के कण बरसाता चल। | + | |रचनाकार=रामधारी सिंह "दिनकर" |
− | + | |संग्रह=नील कुसुम / रामधारी सिंह "दिनकर"; धूप और धुआँ / रामधारी सिंह "दिनकर" | |
− | सिसकियों और चीत्कारों से, जितना भी हो आकाश भरा, | + | }} |
− | + | {{KKCatKavita}} | |
− | कंकालों क हो ढेर, खप्परों से चाहे हो पटी धरा । | + | <poem> |
− | + | लोहे के पेड़ हरे होंगे, | |
− | आशा के स्वर का भार, पवन को | + | तू गान प्रेम का गाता चल, |
− | + | नम होगी यह मिट्टी ज़रूर, | |
− | जीवित सपनों के लिए मार्ग मुर्दों को देना ही होगा। | + | आँसू के कण बरसाता चल। |
− | + | ::सिसकियों और चीत्कारों से, | |
− | रंगो के सातों घट उँड़ेल, यह अँधियारी रँग जायेगी, | + | ::जितना भी हो आकाश भरा, |
− | + | ::कंकालों क हो ढेर, | |
− | ऊषा को सत्य बनाने को जावक नभ पर छितराता चल। | + | ::खप्परों से चाहे हो पटी धरा । |
− | + | आशा के स्वर का भार, | |
− | आदर्शों से आदर्श भिड़े, | + | पवन को लेकिन, लेना ही होगा, |
− | + | जीवित सपनों के लिए मार्ग | |
− | प्रतिमा प्रतिमा से लड़ती है, धरती की किस्मत फूट रही। | + | मुर्दों को देना ही होगा। |
− | + | ::रंगो के सातों घट उँड़ेल, | |
− | आवर्तों का है विषम जाल, निरुपाय बुद्धि चकराती है, | + | ::यह अँधियारी रँग जायेगी, |
− | + | ::ऊषा को सत्य बनाने को | |
− | विज्ञान-यान पर चढी हुई सभ्यता डूबने जाती है। | + | ::जावक नभ पर छितराता चल। |
− | + | आदर्शों से आदर्श भिड़े, | |
− | जब-जब मस्तिष्क जयी होता, संसार ज्ञान से चलता है, | + | प्रज्ञा प्रज्ञा पर टूट रही। |
− | + | प्रतिमा प्रतिमा से लड़ती है, | |
− | शीतलता की है राह हृदय, तू यह संवाद सुनाता चल। | + | धरती की किस्मत फूट रही। |
− | + | ::आवर्तों का है विषम जाल, | |
− | सूरज है जग का बुझा-बुझा, चन्द्रमा मलिन-सा लगता है, | + | ::निरुपाय बुद्धि चकराती है, |
− | + | ::विज्ञान-यान पर चढी हुई | |
− | सब की कोशिश बेकार हुई, आलोक न इनका जगता है, | + | ::सभ्यता डूबने जाती है। |
− | + | जब-जब मस्तिष्क जयी होता, | |
− | इन मलिन ग्रहों के प्राणों में कोई नवीन आभा भर दे, | + | संसार ज्ञान से चलता है, |
− | + | शीतलता की है राह हृदय, | |
− | जादूगर! अपने दर्पण पर घिसकर इनको ताजा कर दे। | + | तू यह संवाद सुनाता चल। |
− | + | ::सूरज है जग का बुझा-बुझा, | |
− | दीपक के जलते प्राण, दिवाली तभी सुहावन होती है, | + | ::चन्द्रमा मलिन-सा लगता है, |
− | + | ::सब की कोशिश बेकार हुई, | |
− | रोशनी जगत् को देने को अपनी अस्थियाँ जलाता चल। | + | ::आलोक न इनका जगता है, |
− | + | इन मलिन ग्रहों के प्राणों में | |
− | क्या उन्हें देख विस्मित होना, जो हैं अलमस्त बहारों में, | + | कोई नवीन आभा भर दे, |
− | + | जादूगर! अपने दर्पण पर | |
− | फूलों को जो हैं गूँथ रहे सोने-चाँदी के तारों | + | घिसकर इनको ताजा कर दे। |
− | + | ::दीपक के जलते प्राण, | |
− | मानवता का तू विप्र | + | ::दिवाली तभी सुहावन होती है, |
− | + | ::रोशनी जगत् को देने को | |
− | वेदना-पुत्र! तू तो केवल जलने भर का अधिकारी है। | + | ::अपनी अस्थियाँ जलाता चल। |
− | + | क्या उन्हें देख विस्मित होना, | |
− | ले बड़ी खुशी से उठा, सरोवर में जो हँसता चाँद मिले, | + | जो हैं अलमस्त बहारों में, |
− | + | फूलों को जो हैं गूँथ रहे | |
− | दर्पण में रचकर फूल, मगर उस का भी मोल चुकाता चल। | + | सोने-चाँदी के तारों में। |
− | + | ::मानवता का तू विप्र! | |
− | काया की कितनी धूम-धाम! दो रोज चमक बुझ जाती है; | + | ::गन्ध-छाया का आदि पुजारी है, |
− | + | ::वेदना-पुत्र! तू तो केवल | |
− | छाया पीती पीयुष, मृत्यु के उपर ध्वजा उड़ाती है । | + | ::जलने भर का अधिकारी है। |
− | + | ले बड़ी खुशी से उठा, | |
− | लेने दे जग को उसे, ताल पर जो कलहंस मचलता है, | + | सरोवर में जो हँसता चाँद मिले, |
− | + | दर्पण में रचकर फूल, | |
− | तेरा मराल जल के दर्पण में नीचे-नीचे चलता है। | + | मगर उस का भी मोल चुकाता चल। |
− | + | ::काया की कितनी धूम-धाम! | |
− | कनकाभ धूल झर जाएगी, वे रंग कभी उड़ जाएँगे, | + | ::दो रोज चमक बुझ जाती है; |
− | + | ::छाया पीती पीयुष, | |
− | सौरभ है केवल सार, उसे तू सब के लिए जुगाता चल। | + | ::मृत्यु के उपर ध्वजा उड़ाती है । |
− | + | लेने दे जग को उसे, | |
− | क्या अपनी उन से होड़, अमरता की जिनको पहचान नहीं, | + | ताल पर जो कलहंस मचलता है, |
− | + | तेरा मराल जल के दर्पण | |
− | छाया से परिचय नहीं, गन्ध के जग का जिन को ज्ञान नहीं? | + | में नीचे-नीचे चलता है। |
− | + | ::कनकाभ धूल झर जाएगी, | |
− | जो चतुर चाँद का रस निचोड़ प्यालों में ढाला करते हैं, | + | ::वे रंग कभी उड़ जाएँगे, |
− | + | ::सौरभ है केवल सार, उसे | |
− | भट्ठियाँ चढाकर फूलों से जो इत्र निकाला करते हैं। | + | ::तू सब के लिए जुगाता चल। |
− | + | क्या अपनी उन से होड़, | |
− | ये भी जाएँगे कभी, मगर, आधी मनुष्यतावालों पर, | + | अमरता की जिनको पहचान नहीं, |
− | + | छाया से परिचय नहीं, | |
− | जैसे मुसकाता आया है, वैसे अब भी मुसकाता चल। | + | गन्ध के जग का जिन को ज्ञान नहीं? |
− | + | ::जो चतुर चाँद का रस निचोड़ | |
− | सभ्यता-अंग पर क्षत कराल, यह अर्थ-मानवों का बल है, | + | ::प्यालों में ढाला करते हैं, |
− | + | ::भट्ठियाँ चढाकर फूलों से | |
− | हम रोकर भरते उसे, हमारी आँखों में गंगाजल है। | + | ::जो इत्र निकाला करते हैं। |
− | + | ये भी जाएँगे कभी, मगर, | |
− | शूली पर | + | आधी मनुष्यतावालों पर, |
− | + | जैसे मुसकाता आया है, | |
− | हम शव को जीवित करने को छायापुर में ले जाते हैं। | + | वैसे अब भी मुसकाता चल। |
− | + | ::सभ्यता-अंग पर क्षत कराल, | |
− | भींगी चाँदनियों में जीता, जो कठिन धूप में मरता है, | + | ::यह अर्थ-मानवों का बल है, |
− | + | ::हम रोकर भरते उसे, | |
− | उजियाली से पीड़ित नर के मन में गोधूलि बसाता चल। | + | ::हमारी आँखों में गंगाजल है। |
− | + | शूली पर चढ़ा मसीहा को | |
− | यह देख नयी लीला | + | वे फूल नहीं समाते हैं |
− | + | हम शव को जीवित करने को | |
− | गाँधी के लोहू से सारे, भारत-सागर को लाल किया। | + | छायापुर में ले जाते हैं। |
− | + | ::भींगी चाँदनियों में जीता, | |
− | जो उठे राम, जो उठे कृष्ण, भारत की मिट्टी रोती है, | + | ::जो कठिन धूप में मरता है, |
− | + | ::उजियाली से पीड़ित नर के | |
− | + | ::मन में गोधूलि बसाता चल। | |
− | + | यह देख नयी लीला उनकी, | |
− | तलवार मारती जिन्हें, बाँसुरी उन्हें नया जीवन देती, | + | फिर उनने बड़ा कमाल किया, |
− | + | गाँधी के लोहू से सारे, | |
− | जीवनी-शक्ति के अभिमानी! यह भी कमाल दिखलाता चल। | + | भारत-सागर को लाल किया। |
− | + | ::जो उठे राम, जो उठे कृष्ण, | |
− | धरती के भाग हरे होंगे, भारती अमृत बरसाएगी, | + | ::भारत की मिट्टी रोती है, |
− | + | ::क्या हुआ कि प्यारे गाँधी की | |
− | दिन की कराल दाहकता पर चाँदनी सुशीतल छाएगी। | + | ::यह लाश न जिन्दा होती है? |
− | + | तलवार मारती जिन्हें, | |
− | ज्वालामुखियों के कण्ठों में कलकण्ठी का आसन होगा, | + | बाँसुरी उन्हें नया जीवन देती, |
− | + | जीवनी-शक्ति के अभिमानी! | |
− | जलदों से लदा गगन होगा, फूलों से भरा भुवन होगा। | + | यह भी कमाल दिखलाता चल। |
− | + | ::धरती के भाग हरे होंगे, | |
− | बेजान, यन्त्र-विरचित गूँगी, मूर्त्तियाँ एक दिन बोलेंगी, | + | ::भारती अमृत बरसाएगी, |
− | + | ::दिन की कराल दाहकता पर | |
− | मुँह खोल-खोल सब के भीतर शिल्पी! तू जीभ बिठाता चल। | + | ::चाँदनी सुशीतल छाएगी। |
+ | ज्वालामुखियों के कण्ठों में | ||
+ | कलकण्ठी का आसन होगा, | ||
+ | जलदों से लदा गगन होगा, | ||
+ | फूलों से भरा भुवन होगा। | ||
+ | ::बेजान, यन्त्र-विरचित गूँगी, | ||
+ | ::मूर्त्तियाँ एक दिन बोलेंगी, | ||
+ | ::मुँह खोल-खोल सब के भीतर | ||
+ | ::शिल्पी! तू जीभ बिठाता चल। | ||
+ | </poem> |
23:47, 21 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
लोहे के पेड़ हरे होंगे,
तू गान प्रेम का गाता चल,
नम होगी यह मिट्टी ज़रूर,
आँसू के कण बरसाता चल।
सिसकियों और चीत्कारों से,
जितना भी हो आकाश भरा,
कंकालों क हो ढेर,
खप्परों से चाहे हो पटी धरा ।
आशा के स्वर का भार,
पवन को लेकिन, लेना ही होगा,
जीवित सपनों के लिए मार्ग
मुर्दों को देना ही होगा।
रंगो के सातों घट उँड़ेल,
यह अँधियारी रँग जायेगी,
ऊषा को सत्य बनाने को
जावक नभ पर छितराता चल।
आदर्शों से आदर्श भिड़े,
प्रज्ञा प्रज्ञा पर टूट रही।
प्रतिमा प्रतिमा से लड़ती है,
धरती की किस्मत फूट रही।
आवर्तों का है विषम जाल,
निरुपाय बुद्धि चकराती है,
विज्ञान-यान पर चढी हुई
सभ्यता डूबने जाती है।
जब-जब मस्तिष्क जयी होता,
संसार ज्ञान से चलता है,
शीतलता की है राह हृदय,
तू यह संवाद सुनाता चल।
सूरज है जग का बुझा-बुझा,
चन्द्रमा मलिन-सा लगता है,
सब की कोशिश बेकार हुई,
आलोक न इनका जगता है,
इन मलिन ग्रहों के प्राणों में
कोई नवीन आभा भर दे,
जादूगर! अपने दर्पण पर
घिसकर इनको ताजा कर दे।
दीपक के जलते प्राण,
दिवाली तभी सुहावन होती है,
रोशनी जगत् को देने को
अपनी अस्थियाँ जलाता चल।
क्या उन्हें देख विस्मित होना,
जो हैं अलमस्त बहारों में,
फूलों को जो हैं गूँथ रहे
सोने-चाँदी के तारों में।
मानवता का तू विप्र!
गन्ध-छाया का आदि पुजारी है,
वेदना-पुत्र! तू तो केवल
जलने भर का अधिकारी है।
ले बड़ी खुशी से उठा,
सरोवर में जो हँसता चाँद मिले,
दर्पण में रचकर फूल,
मगर उस का भी मोल चुकाता चल।
काया की कितनी धूम-धाम!
दो रोज चमक बुझ जाती है;
छाया पीती पीयुष,
मृत्यु के उपर ध्वजा उड़ाती है ।
लेने दे जग को उसे,
ताल पर जो कलहंस मचलता है,
तेरा मराल जल के दर्पण
में नीचे-नीचे चलता है।
कनकाभ धूल झर जाएगी,
वे रंग कभी उड़ जाएँगे,
सौरभ है केवल सार, उसे
तू सब के लिए जुगाता चल।
क्या अपनी उन से होड़,
अमरता की जिनको पहचान नहीं,
छाया से परिचय नहीं,
गन्ध के जग का जिन को ज्ञान नहीं?
जो चतुर चाँद का रस निचोड़
प्यालों में ढाला करते हैं,
भट्ठियाँ चढाकर फूलों से
जो इत्र निकाला करते हैं।
ये भी जाएँगे कभी, मगर,
आधी मनुष्यतावालों पर,
जैसे मुसकाता आया है,
वैसे अब भी मुसकाता चल।
सभ्यता-अंग पर क्षत कराल,
यह अर्थ-मानवों का बल है,
हम रोकर भरते उसे,
हमारी आँखों में गंगाजल है।
शूली पर चढ़ा मसीहा को
वे फूल नहीं समाते हैं
हम शव को जीवित करने को
छायापुर में ले जाते हैं।
भींगी चाँदनियों में जीता,
जो कठिन धूप में मरता है,
उजियाली से पीड़ित नर के
मन में गोधूलि बसाता चल।
यह देख नयी लीला उनकी,
फिर उनने बड़ा कमाल किया,
गाँधी के लोहू से सारे,
भारत-सागर को लाल किया।
जो उठे राम, जो उठे कृष्ण,
भारत की मिट्टी रोती है,
क्या हुआ कि प्यारे गाँधी की
यह लाश न जिन्दा होती है?
तलवार मारती जिन्हें,
बाँसुरी उन्हें नया जीवन देती,
जीवनी-शक्ति के अभिमानी!
यह भी कमाल दिखलाता चल।
धरती के भाग हरे होंगे,
भारती अमृत बरसाएगी,
दिन की कराल दाहकता पर
चाँदनी सुशीतल छाएगी।
ज्वालामुखियों के कण्ठों में
कलकण्ठी का आसन होगा,
जलदों से लदा गगन होगा,
फूलों से भरा भुवन होगा।
बेजान, यन्त्र-विरचित गूँगी,
मूर्त्तियाँ एक दिन बोलेंगी,
मुँह खोल-खोल सब के भीतर
शिल्पी! तू जीभ बिठाता चल।