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"लोहे के पेड़ हरे होंगे / रामधारी सिंह "दिनकर"" के अवतरणों में अंतर

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|संग्रह=नील कुसुम / रामधारी सिंह "दिनकर"; धूप और धुआँ / रामधारी सिंह "दिनकर"
 
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<poem>लोहे के पेड़ हरे होंगे, तू गान प्रेम का गाता चल,
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नम होगी यह मिट्टी ज़रूर, आँसू के कण बरसाता चल।
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लोहे के पेड़ हरे होंगे,  
 
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तू गान प्रेम का गाता चल,
सिसकियों और चीत्कारों से, जितना भी हो आकाश भरा,
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नम होगी यह मिट्टी ज़रूर,  
 
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आँसू के कण बरसाता चल।
कंकालों क हो ढेर, खप्परों से चाहे हो पटी धरा ।
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::सिसकियों और चीत्कारों से,  
 
+
::जितना भी हो आकाश भरा,
आशा के स्वर का भार, पवन को लिकिन, लेना ही होगा,
+
::कंकालों क हो ढेर,  
 
+
::खप्परों से चाहे हो पटी धरा ।
जीवित सपनों के लिए मार्ग मुर्दों को देना ही होगा।
+
आशा के स्वर का भार,  
 
+
पवन को लेकिन, लेना ही होगा,
रंगो के सातों घट उँड़ेल, यह अँधियारी रँग जायेगी,
+
जीवित सपनों के लिए मार्ग  
 
+
मुर्दों को देना ही होगा।
ऊषा को सत्य बनाने को जावक नभ पर छितराता चल।
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::रंगो के सातों घट उँड़ेल,  
 
+
::यह अँधियारी रँग जायेगी,
आदर्शों से आदर्श भिड़े, प्रग्या प्रग्या पर टूट रही।
+
::ऊषा को सत्य बनाने को  
 
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::जावक नभ पर छितराता चल।
प्रतिमा प्रतिमा से लड़ती है, धरती की किस्मत फूट रही।
+
आदर्शों से आदर्श भिड़े,  
 
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प्रज्ञा प्रज्ञा पर टूट रही।
आवर्तों का है विषम जाल, निरुपाय बुद्धि चकराती है,
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प्रतिमा प्रतिमा से लड़ती है,  
 
+
धरती की किस्मत फूट रही।
विज्ञान-यान पर चढी हुई सभ्यता डूबने जाती है।
+
::आवर्तों का है विषम जाल,  
 
+
::निरुपाय बुद्धि चकराती है,
जब-जब मस्तिष्क जयी होता, संसार ज्ञान से चलता है,
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::विज्ञान-यान पर चढी हुई  
 
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::सभ्यता डूबने जाती है।
शीतलता की है राह हृदय, तू यह संवाद सुनाता चल।
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जब-जब मस्तिष्क जयी होता,  
 
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संसार ज्ञान से चलता है,
सूरज है जग का बुझा-बुझा, चन्द्रमा मलिन-सा लगता है,
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शीतलता की है राह हृदय,  
 
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तू यह संवाद सुनाता चल।
सब की कोशिश बेकार हुई, आलोक न इनका जगता है,
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::सूरज है जग का बुझा-बुझा,
 
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::चन्द्रमा मलिन-सा लगता है,
इन मलिन ग्रहों के प्राणों में कोई नवीन आभा भर दे,
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::सब की कोशिश बेकार हुई,  
 
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::आलोक न इनका जगता है,
जादूगर! अपने दर्पण पर घिसकर इनको ताजा कर दे।
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इन मलिन ग्रहों के प्राणों में  
 
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कोई नवीन आभा भर दे,
दीपक के जलते प्राण, दिवाली तभी सुहावन होती है,
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जादूगर! अपने दर्पण पर  
 
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घिसकर इनको ताजा कर दे।
रोशनी जगत् को देने को अपनी अस्थियाँ जलाता चल।
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::दीपक के जलते प्राण,  
 
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::दिवाली तभी सुहावन होती है,
क्या उन्हें देख विस्मित होना, जो हैं अलमस्त बहारों में,
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::रोशनी जगत् को देने को  
 
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::अपनी अस्थियाँ जलाता चल।
फूलों को जो हैं गूँथ रहे सोने-चाँदी के तारों में ?
+
क्या उन्हें देख विस्मित होना,
 
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जो हैं अलमस्त बहारों में,
मानवता का तू विप्र, गन्ध-छाया का आदि पुजारी है,
+
फूलों को जो हैं गूँथ रहे  
 
+
सोने-चाँदी के तारों में।
वेदना-पुत्र! तू तो केवल जलने भर का अधिकारी है।
+
::मानवता का तू विप्र!
 
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::गन्ध-छाया का आदि पुजारी है,
ले बड़ी खुशी से उठा, सरोवर में जो हँसता चाँद मिले,
+
::वेदना-पुत्र! तू तो केवल  
 
+
::जलने भर का अधिकारी है।
दर्पण में रचकर फूल, मगर उस का भी मोल चुकाता चल।
+
ले बड़ी खुशी से उठा,  
 
+
सरोवर में जो हँसता चाँद मिले,
काया की कितनी धूम-धाम! दो रोज चमक बुझ जाती है;
+
दर्पण में रचकर फूल,  
 
+
मगर उस का भी मोल चुकाता चल।
छाया पीती पीयुष, मृत्यु के उपर ध्वजा उड़ाती है ।
+
::काया की कितनी धूम-धाम!  
 
+
::दो रोज चमक बुझ जाती है;
लेने दे जग को उसे, ताल पर जो कलहंस मचलता है,
+
::छाया पीती पीयुष,  
 
+
::मृत्यु के उपर ध्वजा उड़ाती है ।
तेरा मराल जल के दर्पण में नीचे-नीचे चलता है।
+
लेने दे जग को उसे,  
 
+
ताल पर जो कलहंस मचलता है,
कनकाभ धूल झर जाएगी, वे रंग कभी उड़ जाएँगे,
+
तेरा मराल जल के दर्पण  
 
+
में नीचे-नीचे चलता है।
सौरभ है केवल सार, उसे तू सब के लिए जुगाता चल।
+
::कनकाभ धूल झर जाएगी,  
 
+
::वे रंग कभी उड़ जाएँगे,
क्या अपनी उन से होड़, अमरता की जिनको पहचान नहीं,
+
::सौरभ है केवल सार, उसे  
 
+
::तू सब के लिए जुगाता चल।
छाया से परिचय नहीं, गन्ध के जग का जिन को ज्ञान नहीं?
+
क्या अपनी उन से होड़,  
 
+
अमरता की जिनको पहचान नहीं,
जो चतुर चाँद का रस निचोड़ प्यालों में ढाला करते हैं,
+
छाया से परिचय नहीं,  
 
+
गन्ध के जग का जिन को ज्ञान नहीं?
भट्ठियाँ चढाकर फूलों से जो इत्र निकाला करते हैं।
+
::जो चतुर चाँद का रस निचोड़  
 
+
::प्यालों में ढाला करते हैं,
ये भी जाएँगे कभी, मगर, आधी मनुष्यतावालों पर,
+
::भट्ठियाँ चढाकर फूलों से  
 
+
::जो इत्र निकाला करते हैं।
जैसे मुसकाता आया है, वैसे अब भी मुसकाता चल।
+
ये भी जाएँगे कभी, मगर,
 
+
आधी मनुष्यतावालों पर,
सभ्यता-अंग पर क्षत कराल, यह अर्थ-मानवों का बल है,
+
जैसे मुसकाता आया है,  
 
+
वैसे अब भी मुसकाता चल।
हम रोकर भरते उसे, हमारी आँखों में गंगाजल है।
+
::सभ्यता-अंग पर क्षत कराल,  
 
+
::यह अर्थ-मानवों का बल है,
शूली पर चढा मसीहा को वे फूल नहीं समाते हैं
+
::हम रोकर भरते उसे,  
 
+
::हमारी आँखों में गंगाजल है।
हम शव को जीवित करने को छायापुर में ले जाते हैं।
+
शूली पर चढ़ा मसीहा को  
 
+
वे फूल नहीं समाते हैं
भींगी चाँदनियों में जीता, जो कठिन धूप में मरता है,
+
हम शव को जीवित करने को  
 
+
छायापुर में ले जाते हैं।
उजियाली से पीड़ित नर के मन में गोधूलि बसाता चल।
+
::भींगी चाँदनियों में जीता,  
 
+
::जो कठिन धूप में मरता है,
यह देख नयी लीला उन की, फिर उन ने बड़ा कमाल किया,
+
::उजियाली से पीड़ित नर के  
 
+
::मन में गोधूलि बसाता चल।
गाँधी के लोहू से सारे, भारत-सागर को लाल किया।
+
यह देख नयी लीला उनकी,  
 
+
फिर उनने बड़ा कमाल किया,
जो उठे राम, जो उठे कृष्ण, भारत की मिट्टी रोती है,
+
गाँधी के लोहू से सारे,  
 
+
भारत-सागर को लाल किया।
क्य हुआ कि प्यारे गाँधी की यह लाश न जिन्दा होती है?
+
::जो उठे राम, जो उठे कृष्ण,  
 
+
::भारत की मिट्टी रोती है,
तलवार मारती जिन्हें, बाँसुरी उन्हें नया जीवन देती,
+
::क्या हुआ कि प्यारे गाँधी की  
 
+
::यह लाश न जिन्दा होती है?
जीवनी-शक्ति के अभिमानी! यह भी कमाल दिखलाता चल।
+
तलवार मारती जिन्हें,  
 
+
बाँसुरी उन्हें नया जीवन देती,
धरती के भाग हरे होंगे, भारती अमृत बरसाएगी,
+
जीवनी-शक्ति के अभिमानी!  
 
+
यह भी कमाल दिखलाता चल।
दिन की कराल दाहकता पर चाँदनी सुशीतल छाएगी।
+
::धरती के भाग हरे होंगे,  
 
+
::भारती अमृत बरसाएगी,
ज्वालामुखियों के कण्ठों में कलकण्ठी का आसन होगा,
+
::दिन की कराल दाहकता पर  
 
+
::चाँदनी सुशीतल छाएगी।
जलदों से लदा गगन होगा, फूलों से भरा भुवन होगा।
+
ज्वालामुखियों के कण्ठों में  
 
+
कलकण्ठी का आसन होगा,
बेजान, यन्त्र-विरचित गूँगी, मूर्त्तियाँ एक दिन बोलेंगी,
+
जलदों से लदा गगन होगा,  
 
+
फूलों से भरा भुवन होगा।
मुँह खोल-खोल सब के भीतर शिल्पी! तू जीभ बिठाता चल।
+
::बेजान, यन्त्र-विरचित गूँगी,  
 +
::मूर्त्तियाँ एक दिन बोलेंगी,
 +
::मुँह खोल-खोल सब के भीतर  
 +
::शिल्पी! तू जीभ बिठाता चल।
 +
</poem>

23:47, 21 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण

लोहे के पेड़ हरे होंगे,
तू गान प्रेम का गाता चल,
नम होगी यह मिट्टी ज़रूर,
आँसू के कण बरसाता चल।
सिसकियों और चीत्कारों से,
जितना भी हो आकाश भरा,
कंकालों क हो ढेर,
खप्परों से चाहे हो पटी धरा ।
आशा के स्वर का भार,
पवन को लेकिन, लेना ही होगा,
जीवित सपनों के लिए मार्ग
मुर्दों को देना ही होगा।
रंगो के सातों घट उँड़ेल,
यह अँधियारी रँग जायेगी,
ऊषा को सत्य बनाने को
जावक नभ पर छितराता चल।
आदर्शों से आदर्श भिड़े,
प्रज्ञा प्रज्ञा पर टूट रही।
प्रतिमा प्रतिमा से लड़ती है,
धरती की किस्मत फूट रही।
आवर्तों का है विषम जाल,
निरुपाय बुद्धि चकराती है,
विज्ञान-यान पर चढी हुई
सभ्यता डूबने जाती है।
जब-जब मस्तिष्क जयी होता,
संसार ज्ञान से चलता है,
शीतलता की है राह हृदय,
तू यह संवाद सुनाता चल।
सूरज है जग का बुझा-बुझा,
चन्द्रमा मलिन-सा लगता है,
सब की कोशिश बेकार हुई,
आलोक न इनका जगता है,
इन मलिन ग्रहों के प्राणों में
कोई नवीन आभा भर दे,
जादूगर! अपने दर्पण पर
घिसकर इनको ताजा कर दे।
दीपक के जलते प्राण,
दिवाली तभी सुहावन होती है,
रोशनी जगत् को देने को
अपनी अस्थियाँ जलाता चल।
क्या उन्हें देख विस्मित होना,
जो हैं अलमस्त बहारों में,
फूलों को जो हैं गूँथ रहे
सोने-चाँदी के तारों में।
मानवता का तू विप्र!
गन्ध-छाया का आदि पुजारी है,
वेदना-पुत्र! तू तो केवल
जलने भर का अधिकारी है।
ले बड़ी खुशी से उठा,
सरोवर में जो हँसता चाँद मिले,
दर्पण में रचकर फूल,
मगर उस का भी मोल चुकाता चल।
काया की कितनी धूम-धाम!
दो रोज चमक बुझ जाती है;
छाया पीती पीयुष,
मृत्यु के उपर ध्वजा उड़ाती है ।
लेने दे जग को उसे,
ताल पर जो कलहंस मचलता है,
तेरा मराल जल के दर्पण
में नीचे-नीचे चलता है।
कनकाभ धूल झर जाएगी,
वे रंग कभी उड़ जाएँगे,
सौरभ है केवल सार, उसे
तू सब के लिए जुगाता चल।
क्या अपनी उन से होड़,
अमरता की जिनको पहचान नहीं,
छाया से परिचय नहीं,
गन्ध के जग का जिन को ज्ञान नहीं?
जो चतुर चाँद का रस निचोड़
प्यालों में ढाला करते हैं,
भट्ठियाँ चढाकर फूलों से
जो इत्र निकाला करते हैं।
ये भी जाएँगे कभी, मगर,
आधी मनुष्यतावालों पर,
जैसे मुसकाता आया है,
वैसे अब भी मुसकाता चल।
सभ्यता-अंग पर क्षत कराल,
यह अर्थ-मानवों का बल है,
हम रोकर भरते उसे,
हमारी आँखों में गंगाजल है।
शूली पर चढ़ा मसीहा को
वे फूल नहीं समाते हैं
हम शव को जीवित करने को
छायापुर में ले जाते हैं।
भींगी चाँदनियों में जीता,
जो कठिन धूप में मरता है,
उजियाली से पीड़ित नर के
मन में गोधूलि बसाता चल।
यह देख नयी लीला उनकी,
फिर उनने बड़ा कमाल किया,
गाँधी के लोहू से सारे,
भारत-सागर को लाल किया।
जो उठे राम, जो उठे कृष्ण,
भारत की मिट्टी रोती है,
क्या हुआ कि प्यारे गाँधी की
यह लाश न जिन्दा होती है?
तलवार मारती जिन्हें,
बाँसुरी उन्हें नया जीवन देती,
जीवनी-शक्ति के अभिमानी!
यह भी कमाल दिखलाता चल।
धरती के भाग हरे होंगे,
भारती अमृत बरसाएगी,
दिन की कराल दाहकता पर
चाँदनी सुशीतल छाएगी।
ज्वालामुखियों के कण्ठों में
कलकण्ठी का आसन होगा,
जलदों से लदा गगन होगा,
फूलों से भरा भुवन होगा।
बेजान, यन्त्र-विरचित गूँगी,
मूर्त्तियाँ एक दिन बोलेंगी,
मुँह खोल-खोल सब के भीतर
शिल्पी! तू जीभ बिठाता चल।