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शाख़े-निहाले-ग़म / फ़राज़

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बू-ए-गुल<ref>पुष्प-गंध</ref> भी लहू-लहू थी
सहर<ref>प्रात:</ref> हुई जब तो पेड़ यूँ ख़ुश्को-ज़र्द-रू <ref>सूखा व पीला चेहरा</ref>थेकि जैसे मक़्तल<ref>वध-स्थल्</ref> में मेरे बिछड़े हुए रफ़ीक़ों<ref>मित्रों</ref> की
ज़ख़्मख़ुर्दा<ref>घायल</ref> बरहना <ref> नंगी</ref>लाशें
गड़ी हुई हों
जिनकी कुहना<ref>प्राचीन</ref> जड़ें ज़मीं की अमीक़<ref>अथाह</ref> गहराइयों में बरसों से जागुज़ीं<ref>घोर कष्टदायक</ref> थी
हुजूमे-सरसर<ref>आँधियों की भीड़</ref> में चंद लम्हे ये एस्तादा<ref>सीधे खड़े</ref> न रह सके तो
 
मैं एक बर्गे-ख़िज़ाँ भी
शाख़े-निहाले-ग़म पर रह सकूँगा