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20:49, 22 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
कितने तूफ़ानों को मैं देख नहीं पाई
चिथड़ा होने से पहले
कितने ज्वालामुखी फटे और
छुए बिना उन्हें मैं राख हो गई
कितने झंझावातों ने झिंझोड़ा
कितनी लहरों ने डुबा ही डाला
पलट दिया कितनी नावों ने ठीक धार के मध्य
रुको...रुको...सृष्टि के ओ चक्र
ले चलो मुझे कहीं भी
चक्र चलता रहना चाहिए
आओ मेरे समीप तो ठहरो
लेने से पहले ख़ुद पर
छू कर देख तो लूँ एक बार
मिटा जा सकता है क्या
प्रेम में भी इसी तरह...।