"अकेलापन / ऋतु पल्लवी" के अवतरणों में अंतर
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एक दिन जब बहुत अलसाने के बाद आँखे खोलीं, | एक दिन जब बहुत अलसाने के बाद आँखे खोलीं, | ||
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खिड़की से झरते हल्के प्रकाश को बुझ जाते देखा | खिड़की से झरते हल्के प्रकाश को बुझ जाते देखा | ||
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एक छोटे बच्चे से नन्हे सूरज को आते-जाते देखा | एक छोटे बच्चे से नन्हे सूरज को आते-जाते देखा | ||
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नीचे झाँककर देखा हँसते--खिलखिलाते, | नीचे झाँककर देखा हँसते--खिलखिलाते, | ||
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लड़ते-झगड़ते पड़ोस के बच्चे | लड़ते-झगड़ते पड़ोस के बच्चे | ||
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प्रातः के बोझ को ढोते पाँवों की भीड़ | प्रातः के बोझ को ढोते पाँवों की भीड़ | ||
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पर स्वर एक भी सुनाई नहीं पड़ा | पर स्वर एक भी सुनाई नहीं पड़ा | ||
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या यूँ कहूँ कि सुन नहीं सका। | या यूँ कहूँ कि सुन नहीं सका। | ||
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कमरे में बिखरी चीज़ों को समेटने में लग गया | कमरे में बिखरी चीज़ों को समेटने में लग गया | ||
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चादर,पलंग,तस्वीरें,किताबें | चादर,पलंग,तस्वीरें,किताबें | ||
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सब अपनी-अपनी जगह ठीक करके, सुने हुए रिकॉर्ड को पुनः सुना | सब अपनी-अपनी जगह ठीक करके, सुने हुए रिकॉर्ड को पुनः सुना | ||
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मन को न भटकने देने के लिए | मन को न भटकने देने के लिए | ||
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रैक की एक-एक किताब को चुना | रैक की एक-एक किताब को चुना | ||
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इस साथी के साथ कुछ समय बिताकर | इस साथी के साथ कुछ समय बिताकर | ||
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पहली बार निस्संगता का भाव जगा | पहली बार निस्संगता का भाव जगा | ||
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ध्यान रहे-- सबसे विश्वसनीय साथी ही, | ध्यान रहे-- सबसे विश्वसनीय साथी ही, | ||
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साथ न होने का अहसास जगाते हैं। | साथ न होने का अहसास जगाते हैं। | ||
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दिन गुज़रता रहा और अपना अस्तित्व फैलाता रहा | दिन गुज़रता रहा और अपना अस्तित्व फैलाता रहा | ||
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पाखिओं के शोर में भी शाम नीरव लगी | पाखिओं के शोर में भी शाम नीरव लगी | ||
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मन जागकर कुछ खोजता था-- | मन जागकर कुछ खोजता था-- | ||
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ढलती शाम में सुबह का नयापन! | ढलती शाम में सुबह का नयापन! | ||
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आस तो कभी टूटती नहीं है | आस तो कभी टूटती नहीं है | ||
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सब डूब जाता है तब भी नहीं। | सब डूब जाता है तब भी नहीं। | ||
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मन में आशा थी उससे दूर जाने की | मन में आशा थी उससे दूर जाने की | ||
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उस एकाकीपन के साम्राज्य से स्वयं को बचाने की | उस एकाकीपन के साम्राज्य से स्वयं को बचाने की | ||
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मैं निस्संग था ,पर एकाकी नहीं | मैं निस्संग था ,पर एकाकी नहीं | ||
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मेरा अकेलापन मेरे साथ था ! | मेरा अकेलापन मेरे साथ था ! | ||
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दिन के हर उस क्षण में, जब मैं | दिन के हर उस क्षण में, जब मैं | ||
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प्रकृति में, लोगों में, किताबों में | प्रकृति में, लोगों में, किताबों में | ||
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अपनी,केवल अपनी इयत्ता खोजता था. | अपनी,केवल अपनी इयत्ता खोजता था. | ||
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और उसने कहा-- | और उसने कहा-- | ||
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तुम चाहकर भी मुझसे अलग नहीं हो सकते, | तुम चाहकर भी मुझसे अलग नहीं हो सकते, | ||
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मत होओ -क्योंकि तुम्हारा वास्तविक स्वरूप | मत होओ -क्योंकि तुम्हारा वास्तविक स्वरूप | ||
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केवल मैं ही पहचानता हूँ। | केवल मैं ही पहचानता हूँ। | ||
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यहाँ सब भटकते हैं स्वयं को खोजने के लिए, | यहाँ सब भटकते हैं स्वयं को खोजने के लिए, | ||
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अपने अस्तित्व की अर्थवत्ता जानने के लिए, | अपने अस्तित्व की अर्थवत्ता जानने के लिए, | ||
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और मैं तुम्हारी उसी अर्थवत्ता की पहचान हूँ। | और मैं तुम्हारी उसी अर्थवत्ता की पहचान हूँ। | ||
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संसार की भीड़ में तुम मुझे ही भूल जाते हो | संसार की भीड़ में तुम मुझे ही भूल जाते हो | ||
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इसलिए अपना प्रभाव जताने के लिए, | इसलिए अपना प्रभाव जताने के लिए, | ||
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मुझे आना पड़ता है , | मुझे आना पड़ता है , | ||
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मानव को उसके मूल तक ले जाना पड़ता है | मानव को उसके मूल तक ले जाना पड़ता है | ||
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...और अब मेरे आस-पास घर, बच्चे, किताबें | ...और अब मेरे आस-पास घर, बच्चे, किताबें | ||
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लोग, दिन, समय कुछ भी नहीं था | लोग, दिन, समय कुछ भी नहीं था | ||
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केवल दूर-दूर तक फैला अकेलापन था। | केवल दूर-दूर तक फैला अकेलापन था। | ||
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19:30, 24 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
एक दिन जब बहुत अलसाने के बाद आँखे खोलीं,
खिड़की से झरते हल्के प्रकाश को बुझ जाते देखा
एक छोटे बच्चे से नन्हे सूरज को आते-जाते देखा
नीचे झाँककर देखा हँसते--खिलखिलाते,
लड़ते-झगड़ते पड़ोस के बच्चे
प्रातः के बोझ को ढोते पाँवों की भीड़
पर स्वर एक भी सुनाई नहीं पड़ा
या यूँ कहूँ कि सुन नहीं सका।
कमरे में बिखरी चीज़ों को समेटने में लग गया
चादर,पलंग,तस्वीरें,किताबें
सब अपनी-अपनी जगह ठीक करके, सुने हुए रिकॉर्ड को पुनः सुना
मन को न भटकने देने के लिए
रैक की एक-एक किताब को चुना
इस साथी के साथ कुछ समय बिताकर
पहली बार निस्संगता का भाव जगा
ध्यान रहे-- सबसे विश्वसनीय साथी ही,
साथ न होने का अहसास जगाते हैं।
दिन गुज़रता रहा और अपना अस्तित्व फैलाता रहा
पाखिओं के शोर में भी शाम नीरव लगी
मन जागकर कुछ खोजता था--
ढलती शाम में सुबह का नयापन!
आस तो कभी टूटती नहीं है
सब डूब जाता है तब भी नहीं।
मन में आशा थी उससे दूर जाने की
उस एकाकीपन के साम्राज्य से स्वयं को बचाने की
मैं निस्संग था ,पर एकाकी नहीं
मेरा अकेलापन मेरे साथ था !
दिन के हर उस क्षण में, जब मैं
प्रकृति में, लोगों में, किताबों में
अपनी,केवल अपनी इयत्ता खोजता था.
और उसने कहा--
तुम चाहकर भी मुझसे अलग नहीं हो सकते,
मत होओ -क्योंकि तुम्हारा वास्तविक स्वरूप
केवल मैं ही पहचानता हूँ।
यहाँ सब भटकते हैं स्वयं को खोजने के लिए,
अपने अस्तित्व की अर्थवत्ता जानने के लिए,
और मैं तुम्हारी उसी अर्थवत्ता की पहचान हूँ।
संसार की भीड़ में तुम मुझे ही भूल जाते हो
इसलिए अपना प्रभाव जताने के लिए,
मुझे आना पड़ता है ,
मानव को उसके मूल तक ले जाना पड़ता है
...और अब मेरे आस-पास घर, बच्चे, किताबें
लोग, दिन, समय कुछ भी नहीं था
केवल दूर-दूर तक फैला अकेलापन था।