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"घर / ऋतु पल्लवी" के अवतरणों में अंतर

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भीड़ भरी सड़कों की चीख़ती आवाज़ें
 
भीड़ भरी सड़कों की चीख़ती आवाज़ें
 
 
अक्सर खींचती हैं मुझे..
 
अक्सर खींचती हैं मुझे..
 
 
और घर के सन्नाटे से घबराकर,
 
और घर के सन्नाटे से घबराकर,
 
 
में उस ओर बढ़ जाती हँ
 
में उस ओर बढ़ जाती हँ
 
 
...ठिठक-ठिठक कर क़दम बढाती हूँ।  
 
...ठिठक-ठिठक कर क़दम बढाती हूँ।  
 
  
 
भय है मुझे उन विशालकाय खुले रास्तों से  
 
भय है मुझे उन विशालकाय खुले रास्तों से  
 
 
कि जहाँ से कोई रास्ता कहीं नहीं जाता है
 
कि जहाँ से कोई रास्ता कहीं नहीं जाता है
 
 
बस अपनी ओर बुलाता है।  
 
बस अपनी ओर बुलाता है।  
 
  
 
पर यह निर्वाक शाम
 
पर यह निर्वाक शाम
 
 
उकताहट  की हद तक शान्ति (अशांति)
 
उकताहट  की हद तक शान्ति (अशांति)
 
 
मुझे उस ओर धकेलती है   
 
मुझे उस ओर धकेलती है   
 
 
...कुछ दूर अच्छा लगता है     
 
...कुछ दूर अच्छा लगता है     
 
 
आप अपने में जीने का स्वाद सच्चा लगता है
 
आप अपने में जीने का स्वाद सच्चा लगता है
 
  
 
चार क़दम बढ़ाती हूँ--
 
चार क़दम बढ़ाती हूँ--
 
 
अपने को जहाँ पाती हूँ-- वहाँ से,
 
अपने को जहाँ पाती हूँ-- वहाँ से,
 
 
मुड़कर... फिर मुड़कर देखती हूँ!  
 
मुड़कर... फिर मुड़कर देखती हूँ!  
 
 
मुझे भय है,
 
मुझे भय है,
 
 
घर की दीवारों-दरवाज़ों का, जो अभी तक जीते हैं
 
घर की दीवारों-दरवाज़ों का, जो अभी तक जीते हैं
 
 
उन आदर्शों का जो इतना नहीं रीते हैं,
 
उन आदर्शों का जो इतना नहीं रीते हैं,
 
 
मुझे भय ह-- अपने पकड़े जाने का
 
मुझे भय ह-- अपने पकड़े जाने का
 
 
किसी और के हाथ नहीं,
 
किसी और के हाथ नहीं,
 
 
अपने अंतर में जकड़े जाने का।  
 
अपने अंतर में जकड़े जाने का।  
 
  
 
ये डर मुझे बढ़ने नहीं देते  
 
ये डर मुझे बढ़ने नहीं देते  
 
 
उन पुकारते स्वरों को मेरे क़दमों से जुड़ने नहीं देते  
 
उन पुकारते स्वरों को मेरे क़दमों से जुड़ने नहीं देते  
 
 
और मैं स्वयं को पीछे समेटती,
 
और मैं स्वयं को पीछे समेटती,
 
 
इतनी बेबस हो जाती हूँ  
 
इतनी बेबस हो जाती हूँ  
 
 
...कि घर को अपने और नज़दीक पाती हूँ
 
...कि घर को अपने और नज़दीक पाती हूँ
 
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19:40, 24 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण

भीड़ भरी सड़कों की चीख़ती आवाज़ें
अक्सर खींचती हैं मुझे..
और घर के सन्नाटे से घबराकर,
में उस ओर बढ़ जाती हँ
...ठिठक-ठिठक कर क़दम बढाती हूँ।

भय है मुझे उन विशालकाय खुले रास्तों से
कि जहाँ से कोई रास्ता कहीं नहीं जाता है
बस अपनी ओर बुलाता है।

पर यह निर्वाक शाम
उकताहट की हद तक शान्ति (अशांति)
मुझे उस ओर धकेलती है
...कुछ दूर अच्छा लगता है
आप अपने में जीने का स्वाद सच्चा लगता है

चार क़दम बढ़ाती हूँ--
अपने को जहाँ पाती हूँ-- वहाँ से,
मुड़कर... फिर मुड़कर देखती हूँ!
मुझे भय है,
घर की दीवारों-दरवाज़ों का, जो अभी तक जीते हैं
उन आदर्शों का जो इतना नहीं रीते हैं,
मुझे भय ह-- अपने पकड़े जाने का
किसी और के हाथ नहीं,
अपने अंतर में जकड़े जाने का।

ये डर मुझे बढ़ने नहीं देते
उन पुकारते स्वरों को मेरे क़दमों से जुड़ने नहीं देते
और मैं स्वयं को पीछे समेटती,
इतनी बेबस हो जाती हूँ
...कि घर को अपने और नज़दीक पाती हूँ

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