"वेश्या / ऋतु पल्लवी" के अवतरणों में अंतर
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मैं पवित्रता की कसौटी पर पवित्रतम हूँ | मैं पवित्रता की कसौटी पर पवित्रतम हूँ | ||
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क्योंकि मैं तुम्हारे समाज को | क्योंकि मैं तुम्हारे समाज को | ||
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अपवित्र होने से बचाती हूँ। | अपवित्र होने से बचाती हूँ। | ||
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सारे बनैले-खूंखार भावों को भरती हूँ | सारे बनैले-खूंखार भावों को भरती हूँ | ||
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कोमलतम भावनाओं को पुख्ता करती हूँ। | कोमलतम भावनाओं को पुख्ता करती हूँ। | ||
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मानव के भीतर की उस गाँठ को खोलती हूँ | मानव के भीतर की उस गाँठ को खोलती हूँ | ||
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जो इस सामाजिक तंत्र को उलझा देता | जो इस सामाजिक तंत्र को उलझा देता | ||
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जो घर को, घर नहीं | जो घर को, घर नहीं | ||
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द्रौपदी के चीरहरण का सभालय बना देता। | द्रौपदी के चीरहरण का सभालय बना देता। | ||
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मैं अपने अस्तित्व को तुम्हारे कल्याण के लिए खोती हूँ | मैं अपने अस्तित्व को तुम्हारे कल्याण के लिए खोती हूँ | ||
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स्वयं टूटकर भी, समाज को टूटने से बचाती हूँ | स्वयं टूटकर भी, समाज को टूटने से बचाती हूँ | ||
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और तुम मेरे लिए नित्य नयी | और तुम मेरे लिए नित्य नयी | ||
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दीवार खड़ी करते हो। | दीवार खड़ी करते हो। | ||
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'बियर बार' और ' क्लब' जैसे शब्दों के प्रश्न | 'बियर बार' और ' क्लब' जैसे शब्दों के प्रश्न | ||
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संसद मैं बरी करते हो। | संसद मैं बरी करते हो। | ||
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अगर सचमुच तुम्हे मेरे काम पर शर्म आती है | अगर सचमुच तुम्हे मेरे काम पर शर्म आती है | ||
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तो रोको उस दीवार पार करते व्यक्ति को | तो रोको उस दीवार पार करते व्यक्ति को | ||
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जो तुम्हारा ही अभिन्न साथी है। | जो तुम्हारा ही अभिन्न साथी है। | ||
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मैं तो यहाँ स्वाभिमान के साथ | मैं तो यहाँ स्वाभिमान के साथ | ||
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तलवार की नोंक पर रहकर भी, | तलवार की नोंक पर रहकर भी, | ||
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तन बेचकर, मन की पवित्रता को बचा लेती हूँ | तन बेचकर, मन की पवित्रता को बचा लेती हूँ | ||
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पर क्या कहोगे अपने उस मित्र को | पर क्या कहोगे अपने उस मित्र को | ||
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जो माँ-बहन, पत्नी, पड़ोसियों से नज़रें बचाकर | जो माँ-बहन, पत्नी, पड़ोसियों से नज़रें बचाकर | ||
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सारे तंत्र की मर्यादा को ताक पर रखकर | सारे तंत्र की मर्यादा को ताक पर रखकर | ||
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रोज़ यहाँ मन बेचने चला आता है। | रोज़ यहाँ मन बेचने चला आता है। | ||
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19:47, 24 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
मैं पवित्रता की कसौटी पर पवित्रतम हूँ
क्योंकि मैं तुम्हारे समाज को
अपवित्र होने से बचाती हूँ।
सारे बनैले-खूंखार भावों को भरती हूँ
कोमलतम भावनाओं को पुख्ता करती हूँ।
मानव के भीतर की उस गाँठ को खोलती हूँ
जो इस सामाजिक तंत्र को उलझा देता
जो घर को, घर नहीं
द्रौपदी के चीरहरण का सभालय बना देता।
मैं अपने अस्तित्व को तुम्हारे कल्याण के लिए खोती हूँ
स्वयं टूटकर भी, समाज को टूटने से बचाती हूँ
और तुम मेरे लिए नित्य नयी
दीवार खड़ी करते हो।
'बियर बार' और ' क्लब' जैसे शब्दों के प्रश्न
संसद मैं बरी करते हो।
अगर सचमुच तुम्हे मेरे काम पर शर्म आती है
तो रोको उस दीवार पार करते व्यक्ति को
जो तुम्हारा ही अभिन्न साथी है।
मैं तो यहाँ स्वाभिमान के साथ
तलवार की नोंक पर रहकर भी,
तन बेचकर, मन की पवित्रता को बचा लेती हूँ
पर क्या कहोगे अपने उस मित्र को
जो माँ-बहन, पत्नी, पड़ोसियों से नज़रें बचाकर
सारे तंत्र की मर्यादा को ताक पर रखकर
रोज़ यहाँ मन बेचने चला आता है।