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Kavita Kosh से
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अक़्स-ए-ख़ुशबू हूँ, बिखरने से न रोके कोई
और बिखर जाऊँ तो, मुझ को न समेटे कोई
इस तरह से, कभी टूट कर, बिखरे कोई
अब तो इस राह से वो शख़्स गुजरता गुज़रता भी नहींअब किस उम्मीद पर पे दरवाज़े से झाँके कोई
कोई आहट, कोई आवाज़, कोई छाप नहीं
दिल की गलियाँ बड़ी सुनसान है आए कोई
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