"कामरेड नछत्तर सिंह / शलभ श्रीराम सिंह" के अवतरणों में अंतर
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+ | मुसाफ़िरों के लिए मंज़िलों की तलाश में | ||
+ | जाने कहाँ होगा इस वक़्त वह कॉमरेड नछत्तर सिंह | ||
+ | एक सार्वजनिक संज्ञा से जु़ड़ा-- ’टैक्सी !’ | ||
+ | ’टैक्सी !’ नछत्तर सिंह को इस नाम से पुकारने वाले | ||
+ | नहीं जानते कि रोज़ सूरज को रौंदता है वह | ||
+ | उसकी रोशनी के साथ | ||
+ | उससे कहीं ज़्यादा चमकते हुए | ||
+ | कहीं ज़्यादा ऊँचे उद्देश्यों और इरादों के साथ | ||
+ | ज़्यादा बेहतर दुनिया के निर्माण के लिए | ||
+ | दिन का पहला पानी पीने से लेकर | ||
+ | रात का आख़िरी आशीर्वाद देने तक | ||
+ | अपने पूरे पितापन के साथ | ||
+ | जीवित पंजाब की तरह | ||
+ | जिसे नक्शे की बेजान लकीरें | ||
+ | और | ||
+ | मज़हबी बारूद से खेलती सियासत | ||
+ | तक्सीद नहीं कर सकीं | ||
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+ | ’टैक्सी !’ अपने इस नए और सार्वजनिक नाम में | ||
+ | मुकम्मिल हिन्दुस्तान बन गया है | ||
+ | पंजाब से आकर बंगाल में बस जाने वाला वह | ||
+ | कि अपना कॉमरेड नछत्तर सिंह | ||
+ | समुद्र के भीतर से निकलते हुए | ||
+ | सूरज की छाती पर खड़ा | ||
+ | दिन के पहले पानी और रात के आख़िरी आशीर्वाद के साथ। | ||
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+ | '''5. | ||
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+ | गाँव से शहर और शहर से फिर जिस्म में | ||
+ | हर लम्हा तब्दील होने वाला यह इन्सान | ||
+ | आदमीयत के क़त्ल में कभी शरीक नहीं हुआ। | ||
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+ | ज़बान और मज़हब से बड़ी चीज़ के लिए | ||
+ | टैक्सी के चक्कों पर अपने दिमाग़ को तैनात कर | ||
+ | स्टीयरिंग को हमेशा अपने हाथ की ज़िम्मेदारी पर रखता है | ||
+ | ख़ून और झण्डे के रंगों को | ||
+ | बे-फ़र्क़ बनाता हुआ... | ||
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+ | अपने कुर्ते और पजामे और पग्गड़ में | ||
+ | एक ज़िन्दा तवारीख़ का सफ़ह कि एक आदमी | ||
+ | सब से ऊपर एक गाता हुआ जंगल | ||
+ | जागता हुआ पहाड़ | ||
+ | हँसता हुआ दरिया | ||
+ | बहता अपने अन्दाज़ में | ||
+ | बढ़ता अपनी मंज़िल की ओर | ||
+ | किसी भी जगह समुद्र बन जाने को तैयार | ||
+ | अपनी आग को अपने भीतर बरकरार रखता | ||
+ | कि मर्यादा संयम की सीमा में | ||
+ | अर्थवती है नछत्तर सिंह की मुस्कराहट की तरह | ||
+ | उसके होठों के भीतर | ||
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+ | अपनी हथेलियों में उतर आता है वह | ||
+ | कि पूरा का पूरा इन्सान | ||
+ | आशीर्वाद देते हुए | ||
+ | भाषा में बदल जाता है पूरी तरह बतियाते हुए | ||
+ | सफ़र बन जाता है चलाते हुए टैक्सी | ||
+ | मैंने देखा है | ||
+ | तुमने देखा है | ||
+ | उसने देखा है जिसने उस पर विश्वास किया है। | ||
+ | |||
+ | पूरा का पूरा दिखता है वह देखने वालों को | ||
+ | इस दौर में | ||
+ | अपना वह कॉमरेड नछत्तर सिंह | ||
+ | साथीपन के साथ | ||
+ | समन्दर के भीतर से निकलते सूरज की छाती पर सवार... | ||
+ | |||
+ | '''6. | ||
+ | |||
+ | इतिहास की उँगली थामे | ||
+ | लाहौर से कलकत्ता चला आया था नछत्तर सिंह | ||
+ | लाहौर और अमृतसर की झुकी आँखों से बचता | ||
+ | हैरान-- यह जानकर कि माँ भी तक्सीम हो सकती है | ||
+ | सियासत के हक में | ||
+ | बगैर बाजुओं की मूरत | ||
+ | बग़ैर कन्धों की सरज़मीन | ||
+ | लहूलुहान | ||
+ | अपने दूध की पवित्रता पर शक करने को मज़बूर | ||
+ | एक माँ | ||
+ | कि उसके लाडले | ||
+ | उसे नंगी कर देने पर आमादह थे | ||
+ | ग्रन्थ साहब और कुरान शरीफ़ के पन्ने | ||
+ | ख़ौफ़ज़दह पंछियों की तरह | ||
+ | फड़फड़ाकर चिपक गए थे एक दूसरे से | ||
+ | इब्लीसी निज़ाम के तहत। | ||
+ | |||
+ | '''7. | ||
+ | |||
+ | उसकी मुख़ालिफ़त में ख़ामोश | ||
+ | इतिहास की उँगली पकड़े | ||
+ | कलकत्ता चला आया था | ||
+ | अपना यह कॉमरेड कि यही नछत्तर सिंह | ||
+ | एक नए उजाले की तलाश में | ||
+ | जिसकी एक रेखा | ||
+ | पूरबी आसमान से उठकर | ||
+ | पूरी दुनिया को घेरने की तैयारी कर रही थी | ||
+ | कलकत्ता से लाहौर तक | ||
+ | कभी भी बढ़ जाने वाली इस रेखा | ||
+ | यानी अपनी उम्मीद के सहारे | ||
+ | अब तक ज़िन्दा है कॉमरेड नछत्तर सिंह | ||
+ | जी रहा है अब भी | ||
+ | कुलदीप में ख़ुद को ढालता | ||
+ | जानता हुआ अच्छी तरह | ||
+ | कि आदमीयत के हक में होने वाले तमाम फ़ैसले | ||
+ | अमूमन कई-कई पीढ़ियों के हाथ में होते हैं। | ||
+ | |||
+ | इसी और इसी यकीन के साथ | ||
+ | कुलदीप के बच्चों में ज़िन्दा रहेगा नछत्तर सिंह | ||
+ | मुसलसिल तहज़ीब और मुकम्मिल एहसास की तरह | ||
+ | मुल्क और कौम का अलमबरदार वह कॉमरेड | ||
+ | दिन के पहले पानी | ||
+ | और | ||
+ | रात के आख़िरी आशीर्वाद के साथ | ||
+ | आदमीयत के कत्ल में कभी भी शरीक न होने के लिए | ||
+ | हर ख़तरे पर सवारी कसने को तैयार | ||
+ | हर लापरवाही के कान पर हॉर्न रखता | ||
+ | सावधान करता आने वाली नसलों को | ||
+ | कि नकली ज़िन्दगी की तवारीख़ | ||
+ | आँधियों के जलते चिरागों के हवाले कि जा चुकी है | ||
+ | कि आदमी गणतन्त्र को उत्सव नहीं | ||
+ | आदमी की ज़रूरत समझने लगा है। | ||
+ | |||
+ | 00 | ||
+ | |||
+ | संविधान के अन्दर के संविधान को तलब करते हुए | ||
+ | लगातार सावधान कर रहा है नछत्तर सिंह | ||
+ | ठठाकर हँसते और धाड़ भर कर हँसते हुए | ||
+ | पहले पानी और आख़िरी आशीर्वाद के घंटों में | ||
+ | यहाँ-वहाँ | ||
+ | जहाँ-तहाँ | ||
+ | हर घड़ी | ||
+ | हर वक़्त | ||
+ | नछत्तर सिंह... कॉमरेड नछत्तर सिंह | ||
+ | टैक्सी और आदमी एक साथ | ||
+ | दूरियों से दूरियों को जोड़ता | ||
+ | झण्डे की तरह लहराता | ||
+ | अपने समय की सतह पर पीढ़ी-दर-पीढ़ी | ||
+ | ज़िन्दा रहने के लिए | ||
+ | एक बाजुबान दस्तावेज़ | ||
+ | नछत्तर सिंह... नछत्तर सिंह | ||
+ | सवाल के भीतर से पैदा होते जवाब कि तरह नछत्तर सिंह... नछत्तर सिंह | ||
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12:47, 1 दिसम्बर 2009 के समय का अवतरण
आज़ादी के बाद हिन्दुस्तान में कलकत्ता स्थित भवानीपुर के जग्गू बाज़ार इलाके में पंजाब से आकर स्थाई तौर पर बस जाने वाले कॉमरेड नछत्तर सिंह से मेरी मुलाकात सुभाषचन्द्र बोस के जन्मदिन पर २३ जनवरी १९७९ को उन्हीं के निवासस्थान पर रात साढ़े ग्यारह बजे हुई थी। मैं उनके इकलौते बेटे और पंजाबी के उभरते हुए जनवादी कवि श्री कुलदीप थिन्द का मेहमान था। २४ जनवरी १९७९ की सुबह घर-परिवार और आसपास के लोगों से मिलने के बाद नछत्तर सिंह के बारे में जो जानकारी हासिल हुई, उसके तहत उनकी जो तहत उनकी जो तस्वीर मेरे जहन में उभरी, उसे मैंने ज्यों का त्यों क़लमबन्द करने की कोशिश की है।
पहली ही मुलाकात में मुझे इस हद तक प्रभावित करने वाला यह पहला इन्सान है जो ’मैं’ की जगह ’हम’ बना हुआ, साथीपन की एक ज़िन्दा मिसाल की तरह हर सवाल के कद्दावर जवाब की शक्ल में मेरे दिल की गहराइयों तक उतरता चला गया है। ज्ञान से व्यवहार तक ’मैं’ से ज़्यादा ’हम’ प्रतीत होने वाला कॉमरेड नछत्तर सिंह अपने वुजूद का घोषणापत्र स्वयं है। -- शलभ
1.
समुद्र था कि गहगह रोशन सूरज
उसके अन्दर से निकल रहा था
पयम्बर की तरह उसके ऊपर चलता हुआ लग रहा था
नछत्तर सिंह रौंदता हुआ सूरज को
चमकता हुआ उससे कई गुना ज़्यादा।
उस रात का आख़िरी आशीर्वाद एकर हमें
सिन्ध-सतलज के साथ चला गया एक दीवार ऊर
शुभ रात्रि की कामना करता हमारे लिए।
जीवित सपने की तरह
साथ रह गया मेरे ’कुलदीप’
शराब से शराबों तक बहता हुआ ज़मीन से ज़मीर के भीतर तक
किसी ख़ामोश ख़याल की तरह पनपता हुआ।
2.
कोपलों में वसन्त हँस पड़ा अचानक
शहर में सुबह के पाँव पड़ रहे थे
नींद-भरी आँखों वाली नन्ही-सी ’बीताँ’
सीने से लगकर
पिछले जन्मों के रिश्तों की ताईद कर रही थी
कच्ची मुस्कानों पर सवार ज़िन्दगी की तरह।
3.
समुद्र था कि गहगह रोशन सूरज
उसके अन्दर से निकल रहा था।
बसों के अन्दर ताज़ा हवा
हवा में चिड़ियों के गीत
गीतों में आमंत्रण दिन का
बच्चों की उंगलियाँ थामे हुए
स्कूलों की ओर जाते पिताओं के पाँव
थकन के बावजूद आश्वस्त थे
कि जन्म लेकर बढ़ रहे थे वे समय के दूसरे हिस्से में
नन्हें-नन्हें इतिहासों की शक्ल में
सामूहिक रूप से पढ़े जाने के लिए
एक नए देश के पक्ष में
रूपायित हो रही थीं उनकी आकांक्षाएँ
ट्यूबवेल की तरह धरती के भीतर
पानी के ख़िलाफ़ गति पकड़ती हुई...
4
मुसाफ़िरों के लिए मंज़िलों की तलाश में
जाने कहाँ होगा इस वक़्त वह कॉमरेड नछत्तर सिंह
एक सार्वजनिक संज्ञा से जु़ड़ा-- ’टैक्सी !’
’टैक्सी !’ नछत्तर सिंह को इस नाम से पुकारने वाले
नहीं जानते कि रोज़ सूरज को रौंदता है वह
उसकी रोशनी के साथ
उससे कहीं ज़्यादा चमकते हुए
कहीं ज़्यादा ऊँचे उद्देश्यों और इरादों के साथ
ज़्यादा बेहतर दुनिया के निर्माण के लिए
दिन का पहला पानी पीने से लेकर
रात का आख़िरी आशीर्वाद देने तक
अपने पूरे पितापन के साथ
जीवित पंजाब की तरह
जिसे नक्शे की बेजान लकीरें
और
मज़हबी बारूद से खेलती सियासत
तक्सीद नहीं कर सकीं
’टैक्सी !’ अपने इस नए और सार्वजनिक नाम में
मुकम्मिल हिन्दुस्तान बन गया है
पंजाब से आकर बंगाल में बस जाने वाला वह
कि अपना कॉमरेड नछत्तर सिंह
समुद्र के भीतर से निकलते हुए
सूरज की छाती पर खड़ा
दिन के पहले पानी और रात के आख़िरी आशीर्वाद के साथ।
5.
गाँव से शहर और शहर से फिर जिस्म में
हर लम्हा तब्दील होने वाला यह इन्सान
आदमीयत के क़त्ल में कभी शरीक नहीं हुआ।
ज़बान और मज़हब से बड़ी चीज़ के लिए
टैक्सी के चक्कों पर अपने दिमाग़ को तैनात कर
स्टीयरिंग को हमेशा अपने हाथ की ज़िम्मेदारी पर रखता है
ख़ून और झण्डे के रंगों को
बे-फ़र्क़ बनाता हुआ...
अपने कुर्ते और पजामे और पग्गड़ में
एक ज़िन्दा तवारीख़ का सफ़ह कि एक आदमी
सब से ऊपर एक गाता हुआ जंगल
जागता हुआ पहाड़
हँसता हुआ दरिया
बहता अपने अन्दाज़ में
बढ़ता अपनी मंज़िल की ओर
किसी भी जगह समुद्र बन जाने को तैयार
अपनी आग को अपने भीतर बरकरार रखता
कि मर्यादा संयम की सीमा में
अर्थवती है नछत्तर सिंह की मुस्कराहट की तरह
उसके होठों के भीतर
अपनी हथेलियों में उतर आता है वह
कि पूरा का पूरा इन्सान
आशीर्वाद देते हुए
भाषा में बदल जाता है पूरी तरह बतियाते हुए
सफ़र बन जाता है चलाते हुए टैक्सी
मैंने देखा है
तुमने देखा है
उसने देखा है जिसने उस पर विश्वास किया है।
पूरा का पूरा दिखता है वह देखने वालों को
इस दौर में
अपना वह कॉमरेड नछत्तर सिंह
साथीपन के साथ
समन्दर के भीतर से निकलते सूरज की छाती पर सवार...
6.
इतिहास की उँगली थामे
लाहौर से कलकत्ता चला आया था नछत्तर सिंह
लाहौर और अमृतसर की झुकी आँखों से बचता
हैरान-- यह जानकर कि माँ भी तक्सीम हो सकती है
सियासत के हक में
बगैर बाजुओं की मूरत
बग़ैर कन्धों की सरज़मीन
लहूलुहान
अपने दूध की पवित्रता पर शक करने को मज़बूर
एक माँ
कि उसके लाडले
उसे नंगी कर देने पर आमादह थे
ग्रन्थ साहब और कुरान शरीफ़ के पन्ने
ख़ौफ़ज़दह पंछियों की तरह
फड़फड़ाकर चिपक गए थे एक दूसरे से
इब्लीसी निज़ाम के तहत।
7.
उसकी मुख़ालिफ़त में ख़ामोश
इतिहास की उँगली पकड़े
कलकत्ता चला आया था
अपना यह कॉमरेड कि यही नछत्तर सिंह
एक नए उजाले की तलाश में
जिसकी एक रेखा
पूरबी आसमान से उठकर
पूरी दुनिया को घेरने की तैयारी कर रही थी
कलकत्ता से लाहौर तक
कभी भी बढ़ जाने वाली इस रेखा
यानी अपनी उम्मीद के सहारे
अब तक ज़िन्दा है कॉमरेड नछत्तर सिंह
जी रहा है अब भी
कुलदीप में ख़ुद को ढालता
जानता हुआ अच्छी तरह
कि आदमीयत के हक में होने वाले तमाम फ़ैसले
अमूमन कई-कई पीढ़ियों के हाथ में होते हैं।
इसी और इसी यकीन के साथ
कुलदीप के बच्चों में ज़िन्दा रहेगा नछत्तर सिंह
मुसलसिल तहज़ीब और मुकम्मिल एहसास की तरह
मुल्क और कौम का अलमबरदार वह कॉमरेड
दिन के पहले पानी
और
रात के आख़िरी आशीर्वाद के साथ
आदमीयत के कत्ल में कभी भी शरीक न होने के लिए
हर ख़तरे पर सवारी कसने को तैयार
हर लापरवाही के कान पर हॉर्न रखता
सावधान करता आने वाली नसलों को
कि नकली ज़िन्दगी की तवारीख़
आँधियों के जलते चिरागों के हवाले कि जा चुकी है
कि आदमी गणतन्त्र को उत्सव नहीं
आदमी की ज़रूरत समझने लगा है।
00
संविधान के अन्दर के संविधान को तलब करते हुए
लगातार सावधान कर रहा है नछत्तर सिंह
ठठाकर हँसते और धाड़ भर कर हँसते हुए
पहले पानी और आख़िरी आशीर्वाद के घंटों में
यहाँ-वहाँ
जहाँ-तहाँ
हर घड़ी
हर वक़्त
नछत्तर सिंह... कॉमरेड नछत्तर सिंह
टैक्सी और आदमी एक साथ
दूरियों से दूरियों को जोड़ता
झण्डे की तरह लहराता
अपने समय की सतह पर पीढ़ी-दर-पीढ़ी
ज़िन्दा रहने के लिए
एक बाजुबान दस्तावेज़
नछत्तर सिंह... नछत्तर सिंह
सवाल के भीतर से पैदा होते जवाब कि तरह नछत्तर सिंह... नछत्तर सिंह