"मिट्टी और फूल (कविता) / नरेन्द्र शर्मा" के अवतरणों में अंतर
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वह कहती, ’हैं तृण तरु-प्राणी जितने, मेरे बेटा बेटी!’ | वह कहती, ’हैं तृण तरु-प्राणी जितने, मेरे बेटा बेटी!’ | ||
ऊपर नीला आकाश और नीचे सोना-माटी लेटी! | ऊपर नीला आकाश और नीचे सोना-माटी लेटी! | ||
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’मैं सब कुछ सहती रहती हूँ, हो धूप-ताप वर्षा-पाला, | ’मैं सब कुछ सहती रहती हूँ, हो धूप-ताप वर्षा-पाला, | ||
पर मेरे भीतर छिपी हुई बिन बुझी एक भीषण ज्वाला! | पर मेरे भीतर छिपी हुई बिन बुझी एक भीषण ज्वाला! | ||
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मैं मिट्टी हूँ, मैं सब कुछ सहती रहती हूँ चुपचाप पड़ी, | मैं मिट्टी हूँ, मैं सब कुछ सहती रहती हूँ चुपचाप पड़ी, | ||
हिम-आतप में गल और सूख पर नहीं आज तक गली सड़ी! | हिम-आतप में गल और सूख पर नहीं आज तक गली सड़ी! | ||
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मैं मिट्टी हूँ, मेरे भीतर सोना-रूपा, नौरतन भरे! | मैं मिट्टी हूँ, मेरे भीतर सोना-रूपा, नौरतन भरे! | ||
मैं सूखी हूँ, पर मुझसे ही फल-फूल और बन-बाग हरे! | मैं सूखी हूँ, पर मुझसे ही फल-फूल और बन-बाग हरे! | ||
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+ | मैं पाँवों के नीचे, मैं ही हूँ पर पर्वत पर की चोटी! | ||
+ | मेरी छाती पर शत पर्वत, मैं मिट्टी हूँ सब से छोटी! | ||
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+ | मैं मिट्टी हूँ--अंधी मिट्टी, पर मुकुल-फूल मेरी आँखें! | ||
+ | मैं मिट्टी हूँ--जड़ मिट्टी हूँ, पर पत्रों में मेरी पाँखें! | ||
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+ | मैं मिट्टी हूँ--मैं वर्णहीन, पर निकले मुझसे वर्ण सकल! | ||
+ | मेरे रस में प्रसून रंजित, रंजित नव अंकुर, पल्लव-दल! | ||
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+ | मैं गंधहीन, मुझसे करते फल फूल मूल पर गंध ग्रहण; | ||
+ | जल वायु व्योम जो गंध रहित करते वे किसकी गंध वहन? | ||
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+ | मैं शव की शय्या, मुझसे ही उगते हैं नव जीवन-अंकुर, | ||
+ | नभ में कैसे खेती करता सब जीवों में जो जीव चतुर? | ||
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+ | आती है मेरे पास खगी दाने दाने को चोंच खोल, | ||
+ | तिन दबा चटुल उड़ जाती है मेरे पेड़ों पर वह अबोल! | ||
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+ | मुझसे बनते हैं महल और ये खड़ीं मुझी पर मीनारें, | ||
+ | मैं करवट लेती--ढह जाते हैं दुर्ग, चीन की दीवारें! | ||
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+ | हाँ, बुद्धिजीव आदर्शमुग्ध मानव भी मेरी ही कृति है, | ||
+ | पैग़म्बर और सिकन्दर का मुझसे अथ है, मुझमें इति है! | ||
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+ | मेरे कन-कन पर उडुगन भी वारा करते हिमकण-मोती, | ||
+ | जिनकी सतरंगी गोदी में सिर धर सूरजकिरणें सोतीं! | ||
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+ | मैं मर्त्यलोक की मिट्टी हूँ, मैं सूर्यलोक का एक अंश; | ||
+ | आती हैं जिस घर से किरणें, है मेरा भी तो वही वंश!’ | ||
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+ | :::(२) | ||
+ | इतने में आया हँस बसन्त, मिट्टी को चूमा--खिला फूल! | ||
+ | थल का बुलबुला फूल जैसे, हँसता समीर में झूल झूल! | ||
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+ | जिस मिट्टी से जीवन पाया, वह उस मिट्टी को गया भूल, | ||
+ | थल का बुलबुला फूल जैसे, हँसता समीर में झूल झूल? | ||
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+ | देखा जो तारों को, सोचा--मैं भी उड़ जाऊँ बहुत दूर, | ||
+ | है जहाँ जल रहा नीलम के मंदिर में वह कर्पूर चूर!’ | ||
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+ | तितली को देखा और कहा--’मुझको दे दो दो चटुल पंख’; | ||
+ | मैना आई तो उससे भी उड़ने को माँगे चटुल पंख! | ||
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+ | फिर आ निकली वन की चिड़िया तिनके चुनने, चुग्गा लेने, | ||
+ | ’ले चलो मुझे भी उड़ा कहीं’ यों फूल लगा उससे कहने! | ||
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+ | चिड़िया की चोंच बसन्ती थी, था फूल गुलाबी रंगभरा, | ||
+ | बस पल में दीखा चिड़िया के मुँह में वह डंठल हरा-भरा! | ||
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+ | ऊपर था नीला आसमान, दीखी नीचे सोना धरती, | ||
+ | थल का बुलबुला फूल टूटा, पर मिट्टी इसमें क्या करती? | ||
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+ | आ गिरा धरा पर फूल, मिला मिट्टी में, छिन में हुआ धूल! | ||
+ | जिस मिट्टी से जीवन पाया, था उस मिट्टी को गया भूल! | ||
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+ | मिट्टी कहती--’मैं सबकुछ सहती रहती हूँ चुपचाप पड़ी, | ||
+ | हिम-आतप में गल और सूख पर नहीं आज तक गली सड़ी!’ | ||
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17:19, 1 दिसम्बर 2009 के समय का अवतरण
(१)
वह कहती, ’हैं तृण तरु-प्राणी जितने, मेरे बेटा बेटी!’
ऊपर नीला आकाश और नीचे सोना-माटी लेटी!
’मैं सब कुछ सहती रहती हूँ, हो धूप-ताप वर्षा-पाला,
पर मेरे भीतर छिपी हुई बिन बुझी एक भीषण ज्वाला!
मैं मिट्टी हूँ, मैं सब कुछ सहती रहती हूँ चुपचाप पड़ी,
हिम-आतप में गल और सूख पर नहीं आज तक गली सड़ी!
मैं मिट्टी हूँ, मेरे भीतर सोना-रूपा, नौरतन भरे!
मैं सूखी हूँ, पर मुझसे ही फल-फूल और बन-बाग हरे!
मैं पाँवों के नीचे, मैं ही हूँ पर पर्वत पर की चोटी!
मेरी छाती पर शत पर्वत, मैं मिट्टी हूँ सब से छोटी!
मैं मिट्टी हूँ--अंधी मिट्टी, पर मुकुल-फूल मेरी आँखें!
मैं मिट्टी हूँ--जड़ मिट्टी हूँ, पर पत्रों में मेरी पाँखें!
मैं मिट्टी हूँ--मैं वर्णहीन, पर निकले मुझसे वर्ण सकल!
मेरे रस में प्रसून रंजित, रंजित नव अंकुर, पल्लव-दल!
मैं गंधहीन, मुझसे करते फल फूल मूल पर गंध ग्रहण;
जल वायु व्योम जो गंध रहित करते वे किसकी गंध वहन?
मैं शव की शय्या, मुझसे ही उगते हैं नव जीवन-अंकुर,
नभ में कैसे खेती करता सब जीवों में जो जीव चतुर?
आती है मेरे पास खगी दाने दाने को चोंच खोल,
तिन दबा चटुल उड़ जाती है मेरे पेड़ों पर वह अबोल!
मुझसे बनते हैं महल और ये खड़ीं मुझी पर मीनारें,
मैं करवट लेती--ढह जाते हैं दुर्ग, चीन की दीवारें!
हाँ, बुद्धिजीव आदर्शमुग्ध मानव भी मेरी ही कृति है,
पैग़म्बर और सिकन्दर का मुझसे अथ है, मुझमें इति है!
मेरे कन-कन पर उडुगन भी वारा करते हिमकण-मोती,
जिनकी सतरंगी गोदी में सिर धर सूरजकिरणें सोतीं!
मैं मर्त्यलोक की मिट्टी हूँ, मैं सूर्यलोक का एक अंश;
आती हैं जिस घर से किरणें, है मेरा भी तो वही वंश!’
(२)
इतने में आया हँस बसन्त, मिट्टी को चूमा--खिला फूल!
थल का बुलबुला फूल जैसे, हँसता समीर में झूल झूल!
जिस मिट्टी से जीवन पाया, वह उस मिट्टी को गया भूल,
थल का बुलबुला फूल जैसे, हँसता समीर में झूल झूल?
देखा जो तारों को, सोचा--मैं भी उड़ जाऊँ बहुत दूर,
है जहाँ जल रहा नीलम के मंदिर में वह कर्पूर चूर!’
तितली को देखा और कहा--’मुझको दे दो दो चटुल पंख’;
मैना आई तो उससे भी उड़ने को माँगे चटुल पंख!
फिर आ निकली वन की चिड़िया तिनके चुनने, चुग्गा लेने,
’ले चलो मुझे भी उड़ा कहीं’ यों फूल लगा उससे कहने!
चिड़िया की चोंच बसन्ती थी, था फूल गुलाबी रंगभरा,
बस पल में दीखा चिड़िया के मुँह में वह डंठल हरा-भरा!
ऊपर था नीला आसमान, दीखी नीचे सोना धरती,
थल का बुलबुला फूल टूटा, पर मिट्टी इसमें क्या करती?
आ गिरा धरा पर फूल, मिला मिट्टी में, छिन में हुआ धूल!
जिस मिट्टी से जीवन पाया, था उस मिट्टी को गया भूल!
मिट्टी कहती--’मैं सबकुछ सहती रहती हूँ चुपचाप पड़ी,
हिम-आतप में गल और सूख पर नहीं आज तक गली सड़ी!’