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06:32, 3 दिसम्बर 2009 के समय का अवतरण


बे-मुल्क हो रहा है जो हिन्दोस्तान में
हर पल समा रहा है मेरे ज़ेहनो-जान में

भाषा तो खैर आपकी दुमदार हो गई
क्या आग भी नहीं है ज़रा- सी ज़ुबान में

यह कौन पूछता है उधर खाँसता हुआ
है और कितनी देर अभी भी बिहान में

कुछ इस तरह से लोग दिले-रहनुमा में हैं
ज्यूँ गंदगी भरी हो किसी नाबदान में

फिरता था जिसके पीछे ज़माना वो आज कल
तन्हा पड़ा हुआ है अँधेरे मकान में

गिरते हो बार-बार अँधेरे में ‘नूर’ तुम
अब भी कहीं कमी है तुम्हारी उड़ान में