भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"साँप की मानिंद वोह डसती रही / चाँद शुक्ला हादियाबादी" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=चाँद हादियाबादी }} Category:गज़ल <poem> साँप की मानिंद व...) |
|||
पंक्ति 3: | पंक्ति 3: | ||
|रचनाकार=चाँद हादियाबादी | |रचनाकार=चाँद हादियाबादी | ||
}} | }} | ||
− | + | {{KKCatGhazal}} | |
<poem> | <poem> | ||
साँप की मानिंद वोह डसती रही | साँप की मानिंद वोह डसती रही |
21:15, 6 दिसम्बर 2009 का अवतरण
साँप की मानिंद वोह डसती रही
मेरे अरमानों में जो रहती रही
रोज़ जलते हैं ग़रीबों के मकान
फिर यह क्यों गुमनाम सी बस्ती रही
साँझ का सूरज था लथपथ खून में
मौत मेहंदी की तरह रचती रही
सूनी थीं गलियाँ ओ गुमसुम रास्ते
नाम की बस्ती थी और बस्ती रही
ना ख़ुदा थे हम ज़माने के लिये
अपनी तो मँझधार में कश्ती रही
गाँव की चौपाल जब बेवा हुई
शहर में शहनाई क्यों बजती रही
गाँव के हर घर का उजड़ा है सुहाग
मौत दुल्हन की तरह सजती रही
उनको अपने नाम की ही भूख है
मेरी रोटी ही मुझे तकती रही
साँप साँपों से गले मिलते रहे
आदमीअत आदमी डसती रही
हर इक घर का "चाँद" था झुलसा हुआ
मुँह जली सी चाँदनी तपती रही