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15:36, 8 दिसम्बर 2009 के समय का अवतरण
पड़ी औंधी नाव
रेतों को पसीना छूटता है ।
इस सी में कहाँ कोई
घर हमारा पूछता है ।
दस्तकें देती हवा
ठहरी हुई चौगान पर
मन हमारा भी ढहा है
कुछ इसी अरमान पर
देख भाई कांच का सपना
कहाँ से टूटता है ?
पहन सारी चुप्पियाँ
घिरने लगे हैं फूल
बिना कुछ भी बताए
झरने लगे हैं फूल
धुने जाने के लिए ही
मन रुई का फूटता है ।
शिराओं में बज रहे जो
रात-दिन के शंख
देखते बच्चे क़िताबों में
बया के पंख
कौन ये हँसते हुए-
सुख का खज़ाना लूटता है?