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"सज़ा / शलभ श्रीराम सिंह" के अवतरणों में अंतर
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तमाशा बनने की तैयारी ख़त्म हुई
तमाशा बन गया है अब एक पूरा का पूरा आदमी |
नाराज़ लोग ख़ुश हुए सारे के सारे
दीदा-फाड़ अंदाज़ में देखते हुए उसकी ओर
लगाते हुए कहकहा
पीटते हुए ताली
अपनी-अपनी थाली बजाने लगे है अब |
तमाशा बना आदमी
बदलता है तमाशबीनों को तमाशे में
इसी तरह
बना कर दीदा-फाड़
लगवा कर कहकहा
पिटवा कर ताली
बजवा कर सबसे अपनी-अपनी थाली |
आदमी को तमाशे की शक्ल में देखने की
एक जायज और बेहतर सज़ा है यह |
रचनाकाल : 29.06.1996, विदिशा
शलभ श्रीराम सिंह की यह रचना उनकी निजी डायरी से कविता कोश को चित्रकार और हिन्दी के कवि कुँअर रविन्द्र के सहयोग से प्राप्त हुई। शलभ जी मृत्यु से पहले अपनी डायरियाँ और रचनाएँ उन्हें सौंप गए थे।