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तुम भी प्रिय अमरूद वाटिकाओं के वासी
हो, सेवा दिष्प्राप्य तुम्हे दी जाती है, मैं
आशंसा भी आज क्या करूं, मेरे जैसे
अगणित जन गुण-गान तुम्हारा किया करेंगे।

नाम रूप का अंत नहीं है, इस जगती में
कर के अनुसंधान इसे पहचान चुका हूँ।
जो भी है आहार वही जीवन दर्शन है
इस सीमा के पार ज्ञान अज्ञान एक है।

सुविचारक प्राचीन तुम्हारा नाम भुला कर
इतस्तत: भटकाव में रहे, क्षमा योग्य हैं
संज्ञाओं से ज्ञान रूप अपना पाता है
जहाँ नहीं है ज्ञान कहो अज्ञान कहाँ है।

27.12.2002