भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
दिन तो दिन, कलमुँही साँझ भी अब तो फूलै री।
:गड़े हिंडोले, वे अनबोले मन में वृन्दावन में, :निकल पडें़गे पड़ेंगे डोले सखि अब भू में और गगन में, :ऋतु में और ऋचा में किसके कसके रिमझिम-रिमझिम बरसन, झांकी ऐसी सजी झूलना भी जी भूलै री।री,
संपूरन के संग अपूरन झूला झूलै री।
:रूठन में पुतली पर जी को की जूठन डोलै री, :अनमोली साधों में मुरली मोहन बोलै री, करताल :करतालन में बंध्यों बँध्यो न रसिया, वह तालन में दीख्योंदीख्यो,
भागूँ कहाँ कलेजौ कालिंदी मैं हूलै री।
संपूरन के संग अपूरन झूला झूलै री।
:नभ के नखत उतर बूँदों में बागों फूल उठे री, :हरी-हरी डालन राधा माधव से झूल उठे री, :आज प्राण प्रणव ने प्रणय भीख से कहा कि नैन उठा तो, साजन दीख न जाय संभालो जरा दुकूलै री। री,दिन तो दिन, कलमंुही कलमुँही साँझ भी अब तो फूलै री,
संपूरन के संग अपूरन झूला झूलै री।
</poem>