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"दूध की बूँदों का अवतरण / माखनलाल चतुर्वेदी" के अवतरणों में अंतर
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::प्राण ’थर’ बन तैरते हैं | ::प्राण ’थर’ बन तैरते हैं | ||
::उन्हें निष्प्राणित न कर दो। | ::उन्हें निष्प्राणित न कर दो। | ||
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+ | ::गो-स्तन खींच लाये, | ||
+ | ::बँधे धेनु-किशोर का | ||
+ | ::अधिकार लूट, उलीच लाये। | ||
+ | ::दूध की धारा मृदंगिनि | ||
+ | ::जन्म का स्वर रुदन बोली | ||
+ | ::कंकणों की मधुर ध्वनि ने | ||
+ | ::वलय-मयी मिठास घोली | ||
+ | ::विवश उनकी रात की | ||
+ | ::बाँधी, उसाँसें छूटती थीं | ||
+ | ::दूध की हर बूँद पर, तड़पन | ||
+ | ::लिये थी, टूटती थी। | ||
+ | ::और माटी की मटकिया | ||
+ | ::गोद पर ’घन’ सी बनी थी, | ||
+ | ::मधुर उजले प्राण भर कर | ||
+ | ::प्रणय के मन-सी बनी थी। | ||
+ | ::वन्य-टेकड़ियाँ छहर | ||
+ | ::दुग्धायमान गुँजार करतीं, | ||
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'''रचनाकाल: प्रताप प्रेस, कानपुर-१९४४ | '''रचनाकाल: प्रताप प्रेस, कानपुर-१९४४ | ||
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21:19, 17 दिसम्बर 2009 का अवतरण
गो-स्तनों पर घूमने वाली
अँगुलियाँ कह रही थीं!
दूध में मीठा न डालो
उसे अपमानित न कर दो,
प्राण ’थर’ बन तैरते हैं
उन्हें निष्प्राणित न कर दो।
ले मलाई से दृगों के पोर,
गो-स्तन खींच लाये,
बँधे धेनु-किशोर का
अधिकार लूट, उलीच लाये।
दूध की धारा मृदंगिनि
जन्म का स्वर रुदन बोली
कंकणों की मधुर ध्वनि ने
वलय-मयी मिठास घोली
विवश उनकी रात की
बाँधी, उसाँसें छूटती थीं
दूध की हर बूँद पर, तड़पन
लिये थी, टूटती थी।
और माटी की मटकिया
गोद पर ’घन’ सी बनी थी,
मधुर उजले प्राण भर कर
प्रणय के मन-सी बनी थी।
वन्य-टेकड़ियाँ छहर
दुग्धायमान गुँजार करतीं,
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रचनाकाल: प्रताप प्रेस, कानपुर-१९४४