"मेरे नगपति! मेरे विशाल! / रामधारी सिंह "दिनकर"" के अवतरणों में अंतर
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मेरे नगपति! मेरे विशाल! | मेरे नगपति! मेरे विशाल! | ||
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साकार, दिव्य, गौरव विराट्, | साकार, दिव्य, गौरव विराट्, | ||
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पौरूष के पुन्जीभूत ज्वाल! | पौरूष के पुन्जीभूत ज्वाल! | ||
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मेरी जननी के हिम-किरीट! | मेरी जननी के हिम-किरीट! | ||
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मेरे भारत के दिव्य भाल! | मेरे भारत के दिव्य भाल! | ||
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मेरे नगपति! मेरे विशाल! | मेरे नगपति! मेरे विशाल! | ||
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युग-युग अजेय, निर्बन्ध, मुक्त, | युग-युग अजेय, निर्बन्ध, मुक्त, | ||
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युग-युग गर्वोन्नत, नित महान, | युग-युग गर्वोन्नत, नित महान, | ||
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निस्सीम व्योम में तान रहा | निस्सीम व्योम में तान रहा | ||
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युग से किस महिमा का वितान? | युग से किस महिमा का वितान? | ||
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कैसी अखंड यह चिर-समाधि? | कैसी अखंड यह चिर-समाधि? | ||
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यतिवर! कैसा यह अमर ध्यान? | यतिवर! कैसा यह अमर ध्यान? | ||
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तू महाशून्य में खोज रहा | तू महाशून्य में खोज रहा | ||
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किस जटिल समस्या का निदान? | किस जटिल समस्या का निदान? | ||
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उलझन का कैसा विषम जाल? | उलझन का कैसा विषम जाल? | ||
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मेरे नगपति! मेरे विशाल! | मेरे नगपति! मेरे विशाल! | ||
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ओ, मौन, तपस्या-लीन यती! | ओ, मौन, तपस्या-लीन यती! | ||
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पल भर को तो कर दृगुन्मेष! | पल भर को तो कर दृगुन्मेष! | ||
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रे ज्वालाओं से दग्ध, विकल | रे ज्वालाओं से दग्ध, विकल | ||
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है तड़प रहा पद पर स्वदेश। | है तड़प रहा पद पर स्वदेश। | ||
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सुखसिंधु, पंचनद, ब्रह्मपुत्र, | सुखसिंधु, पंचनद, ब्रह्मपुत्र, | ||
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गंगा, यमुना की अमिय-धार | गंगा, यमुना की अमिय-धार | ||
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जिस पुण्यभूमि की ओर बही | जिस पुण्यभूमि की ओर बही | ||
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तेरी विगलित करुणा उदार, | तेरी विगलित करुणा उदार, | ||
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जिसके द्वारों पर खड़ा क्रान्त | जिसके द्वारों पर खड़ा क्रान्त | ||
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सीमापति! तू ने की पुकार, | सीमापति! तू ने की पुकार, | ||
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'पद-दलित इसे करना पीछे | 'पद-दलित इसे करना पीछे | ||
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पहले ले मेरा सिर उतार।' | पहले ले मेरा सिर उतार।' | ||
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उस पुण्यभूमि पर आज तपी! | उस पुण्यभूमि पर आज तपी! | ||
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रे, आन पड़ा संकट कराल, | रे, आन पड़ा संकट कराल, | ||
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व्याकुल तेरे सुत तड़प रहे | व्याकुल तेरे सुत तड़प रहे | ||
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डस रहे चतुर्दिक विविध व्याल। | डस रहे चतुर्दिक विविध व्याल। | ||
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मेरे नगपति! मेरे विशाल! | मेरे नगपति! मेरे विशाल! | ||
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कितनी मणियाँ लुट गईं? मिटा | कितनी मणियाँ लुट गईं? मिटा | ||
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कितना मेरा वैभव अशेष! | कितना मेरा वैभव अशेष! | ||
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तू ध्यान-मग्न ही रहा, इधर | तू ध्यान-मग्न ही रहा, इधर | ||
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वीरान हुआ प्यारा स्वदेश। | वीरान हुआ प्यारा स्वदेश। | ||
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वैशाली के भग्नावशेष से | वैशाली के भग्नावशेष से | ||
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पूछ लिच्छवी-शान कहाँ? | पूछ लिच्छवी-शान कहाँ? | ||
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ओ री उदास गण्डकी! बता | ओ री उदास गण्डकी! बता | ||
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विद्यापति कवि के गान कहाँ? | विद्यापति कवि के गान कहाँ? | ||
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तू तरुण देश से पूछ अरे, | तू तरुण देश से पूछ अरे, | ||
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गूँजा कैसा यह ध्वंस-राग? | गूँजा कैसा यह ध्वंस-राग? | ||
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अम्बुधि-अन्तस्तल-बीच छिपी | अम्बुधि-अन्तस्तल-बीच छिपी | ||
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यह सुलग रही है कौन आग? | यह सुलग रही है कौन आग? | ||
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प्राची के प्रांगण-बीच देख, | प्राची के प्रांगण-बीच देख, | ||
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जल रहा स्वर्ण-युग-अग्निज्वाल, | जल रहा स्वर्ण-युग-अग्निज्वाल, | ||
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तू सिंहनाद कर जाग तपी! | तू सिंहनाद कर जाग तपी! | ||
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मेरे नगपति! मेरे विशाल! | मेरे नगपति! मेरे विशाल! | ||
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रे, रोक युधिष्ठिर को न यहाँ, | रे, रोक युधिष्ठिर को न यहाँ, | ||
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जाने दे उनको स्वर्ग धीर, | जाने दे उनको स्वर्ग धीर, | ||
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पर, फिर हमें गाण्डीव-गदा, | पर, फिर हमें गाण्डीव-गदा, | ||
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लौटा दे अर्जुन-भीम वीर। | लौटा दे अर्जुन-भीम वीर। | ||
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कह दे शंकर से, आज करें | कह दे शंकर से, आज करें | ||
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वे प्रलय-नृत्य फिर एक बार। | वे प्रलय-नृत्य फिर एक बार। | ||
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सारे भारत में गूँज उठे, | सारे भारत में गूँज उठे, | ||
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'हर-हर-बम' का फिर महोच्चार। | 'हर-हर-बम' का फिर महोच्चार। | ||
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ले अंगडाई हिल उठे धरा | ले अंगडाई हिल उठे धरा | ||
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कर निज विराट स्वर में निनाद | कर निज विराट स्वर में निनाद | ||
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तू शैलीराट हुँकार भरे | तू शैलीराट हुँकार भरे | ||
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फट जाए कुहा, भागे प्रमाद | फट जाए कुहा, भागे प्रमाद | ||
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तू मौन त्याग, कर सिंहनाद | तू मौन त्याग, कर सिंहनाद | ||
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रे तपी आज तप का न काल | रे तपी आज तप का न काल | ||
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नवयुग-शंखध्वनि जगा रही | नवयुग-शंखध्वनि जगा रही | ||
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तू जाग, जाग, मेरे विशाल | तू जाग, जाग, मेरे विशाल | ||
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00:08, 20 दिसम्बर 2009 का अवतरण
== हिमालय ==
मेरे नगपति! मेरे विशाल!
साकार, दिव्य, गौरव विराट्,
पौरूष के पुन्जीभूत ज्वाल!
मेरी जननी के हिम-किरीट!
मेरे भारत के दिव्य भाल!
मेरे नगपति! मेरे विशाल!
युग-युग अजेय, निर्बन्ध, मुक्त,
युग-युग गर्वोन्नत, नित महान,
निस्सीम व्योम में तान रहा
युग से किस महिमा का वितान?
कैसी अखंड यह चिर-समाधि?
यतिवर! कैसा यह अमर ध्यान?
तू महाशून्य में खोज रहा
किस जटिल समस्या का निदान?
उलझन का कैसा विषम जाल?
मेरे नगपति! मेरे विशाल!
ओ, मौन, तपस्या-लीन यती!
पल भर को तो कर दृगुन्मेष!
रे ज्वालाओं से दग्ध, विकल
है तड़प रहा पद पर स्वदेश।
सुखसिंधु, पंचनद, ब्रह्मपुत्र,
गंगा, यमुना की अमिय-धार
जिस पुण्यभूमि की ओर बही
तेरी विगलित करुणा उदार,
जिसके द्वारों पर खड़ा क्रान्त
सीमापति! तू ने की पुकार,
'पद-दलित इसे करना पीछे
पहले ले मेरा सिर उतार।'
उस पुण्यभूमि पर आज तपी!
रे, आन पड़ा संकट कराल,
व्याकुल तेरे सुत तड़प रहे
डस रहे चतुर्दिक विविध व्याल।
मेरे नगपति! मेरे विशाल!
कितनी मणियाँ लुट गईं? मिटा
कितना मेरा वैभव अशेष!
तू ध्यान-मग्न ही रहा, इधर
वीरान हुआ प्यारा स्वदेश।
वैशाली के भग्नावशेष से
पूछ लिच्छवी-शान कहाँ?
ओ री उदास गण्डकी! बता
विद्यापति कवि के गान कहाँ?
तू तरुण देश से पूछ अरे,
गूँजा कैसा यह ध्वंस-राग?
अम्बुधि-अन्तस्तल-बीच छिपी
यह सुलग रही है कौन आग?
प्राची के प्रांगण-बीच देख,
जल रहा स्वर्ण-युग-अग्निज्वाल,
तू सिंहनाद कर जाग तपी!
मेरे नगपति! मेरे विशाल!
रे, रोक युधिष्ठिर को न यहाँ,
जाने दे उनको स्वर्ग धीर,
पर, फिर हमें गाण्डीव-गदा,
लौटा दे अर्जुन-भीम वीर।
कह दे शंकर से, आज करें
वे प्रलय-नृत्य फिर एक बार।
सारे भारत में गूँज उठे,
'हर-हर-बम' का फिर महोच्चार।
ले अंगडाई हिल उठे धरा
कर निज विराट स्वर में निनाद
तू शैलीराट हुँकार भरे
फट जाए कुहा, भागे प्रमाद
तू मौन त्याग, कर सिंहनाद
रे तपी आज तप का न काल
नवयुग-शंखध्वनि जगा रही
तू जाग, जाग, मेरे विशाल