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"बंगाल का काल / हरिवंशराय बच्चन / पृष्ठ १" के अवतरणों में अंतर

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पड़ गया बंगाल में काल,
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पड़ गया बंगाले में काल,
 
भरी कंगालों से धरती,
 
भरी कंगालों से धरती,
 
भरी कंकालों से धरती!
 
भरी कंकालों से धरती!
  
क्याक कहा?
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दीनता ले असंख्य अवतार,
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पेट खला,
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हाथ पसार,
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पाँच उँगलियाँ बाँध,
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मुँह दिखला,
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भीतर घुसी हुई आँखों से,
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आँसू ढार,
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मानव होने का सारा सम्मान बिसार,
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घूमती गाँव-गाँव,
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घूमती नगर-नगर,
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बाज़ारों-हाटों में, दर-दर, द्वार-द्वार!
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अरे, यह भूख हुई साकार,
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दीर्घाकार!
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तृप्त कर सकता इसको कौन?
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पेट भर सकता इसका कौन?
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भूख ही होती, लो, भोजन!
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मृत्यु अपना मुख शत-योजन
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खोलती,
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खाती और चबाती,
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मोद मनाती,
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मग्न हो मृत्यु नृत्य करती!
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नग्न हो मृत्यु नृत्य करती!
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देती परम तुष्टि की ताल,
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पड़ गया बंगाले में काल,
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भरी कंगालों से धरती,
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भरी कंकालों से धरती!
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क्या कहा?
 
कहाँ पड़ गया काल,
 
कहाँ पड़ गया काल,
 
कहाँ कंगाल,
 
कहाँ कंगाल,
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सिंचित करते वसुंधरा का
 
सिंचित करते वसुंधरा का
 
आँगन उर्वर।
 
आँगन उर्वर।
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जिसमें उगते-बढ़ते तरुवर,
 
जिसमें उगते-बढ़ते तरुवर,
 
लदे दलों से,
 
लदे दलों से,
 
फँदे फलों से,
 
फँदे फलों से,
सजे कली-कली कुसुमों से सुन्द,र।
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सजे कली-कली कुसुमों से सुंदर।
  
वहीं बंगाल-
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वही बंगाल--
देख जिसे पुलकित नेत्रों से
+
देख जिसे पुलकित नेत्रों से,
 
भरे कंठ से,
 
भरे कंठ से,
गद्गद् स्वुर से
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गद्गद स्वर से,
कवि ने गया राष्ट्र  गान वह-
+
कवि ने गाया राष्ट्र  गान वह-
वन्देे मातरम्,
+
वन्दे मातरम्,
सुजलम्, सुफलम्, मलयज शीतलम्,
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सुजलाम्, सुफलाम्, मलयज शीतलाम्,
शस्यम श्यतमलाम्, मातरम्।...
+
शस्य श्यामलाम्, मातरम्...
 
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वहीं बंगाल-
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जिसकी एक साँस ने भर दी
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मेरे देश में जान,
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आत्म  सम्मा न,
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आजादी की आन,
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आज,
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काल की गति भी कैसी, हाय,
+
स्व यं असहाय,
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स्व यं निरुपाय,
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स्व यं निष्प्रा ण,
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मृत्यु  के भुख से होकर ग्रस,
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गिन रहा है जीवन की साँस-साँस।
+
 
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हे कवि, तेरे अमर गान की
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सुजला, सुफला,
+
मलय गंधिता
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शस्यग श्याफमला,
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फुल्लं कुसुमिता,
+
द्रुम सुसज्जिता,
+
चिर सुहासिनी,
+
मधुर भाषिणी,
+
धरणी भरणी,
+
जगत वन्दिता
+
बंग भूमी अब नहीं रही वह!बंग भूमी अब
+
शस्यभ हीन है,
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दीन क्षीण है,
+
चिर मलीन है,
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भरणी आज हो गई है हरणी;
+
जल दे, फल दे और अन्नग दे
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जो करती थी जीव दान,
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मरघट-सा अब रुप बनाकर
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अजगर-सा अब मुँह फैलाकर
+
खा लेती अपनी संतान!
+
 
+
बोल बंग की वीर मेदिनी,
+
अब वह तेरी आग कहाँ है,
+
आज़ादी का राग कहाँ है,
+
लगन कहाँ है, लाग कहाँ है!
+
 
+
बोल बंग के वीर मेदिनी,
+
अब तेरे सिरताज कहाँ हैं,
+
अब तेरे जाँबाज़ कहाँ हैं,
+
अब तेरी आवाज़ कहाँ हैं! 
+
 
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बंकिम ने गर्वोन्नँत ग्रीवा
+
उठा विश्वग से
+
था यह पूछा,
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'के बले मा, तुमि अबले?'
+
 
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मैं कहता हूँ,
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तू अबला है।
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तू होती, मा,
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अगर न निर्बल,
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अगर न दुर्बल,
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तो तेरे यह लक्-लक्ष सुत
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वंचित रहकर उसी अन्ने से,
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उसी धान्यर से
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जिस पर है अधिकार इन्हींं का,
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क्योंर कि इन्होंकने अपने श्रम से
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जोता, बोया,
+
इसे उगाया,
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सींच स्वे द से
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इसे बढ़ाया,
+
काटा, मारा, ढोया,
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भूख-भूख कर,
+
सूख-सूखकर,
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पंजर-पंजर,
+
गिर धरती पर,
+
यों न तोड़ देते अपना दम
+
और नपुंसक मृत्युअ न मरते।
+
भूखे बंग देश के वासी!
+
 
+
छाई है मुरदनी मुखों पर,
+
आँखों में है धँसी उदासी;
+
विपद् ग्रस्त  हो,
+
क्षुधा त्रस्तध हो,
+
चारों ओर भटके फिरते,
+
लस्तं-पस्त, हो
+
ऊपर को तुम हाथ उठाते।
+
 
+
मुझसे सुन लो,
+
नहीं स्वनर्ग से अन्न‍ गिरेगा,
+
नहीं गिरेगी नभ से रोटी;
+
किन्तुि समझ लो,
+
इस दुनिया की प्रति रोटी में,
+
इस दुनिया के हर दाने में,
+
एक तुम्हा रा भाग लगा है,
+
एक तुम्हाररा निश्चित हिस्साा,
+
उसे बँटाने,
+
उसको लेने,
+
उसे छिनने,
+
औ' अपनाने,
+
को जो कुछ भी तुम करते हो,
+
सब कुछ जायज,
+
सब कुछ रायज।
+
 
+
नए जगत में आँखें खालों,
+
नए जगगत की चालें देखों,
+
नहीं बुद्धि से कुछ समझा तो
+
ठोकर खाकर तो कुछ सीखों,
+
और भुलाओ पाठ पुराने।
+
 
+
मन से अब संतोष हटाओ,
+
असंतोष का नाद उठाओ,
+
करो क्रांति का नारा ऊँचा,
+
भूखों, अपनी भूख बढ़ाओ,
+
और भूख की ताकत समझो,
+
हिम्मखत समझो,
+
जुर्रत समझो,
+
कूबत समझो;
+
देखो कौन तुम्हासरे आगे
+
नहीं झुका देता सिर अपना।
+
 
+
हमें भूख का अर्थ बताना,
+
भूखों, इसको आज समझ लो,
+
मरने का यह नहीं बहाना!
+
  
फिर से जीवित,
+
वन्दे मातरम्--
फिर से जाग्रतत,
+
जो नगपति के उच्च शिखर से  
फिर से उन्नरत
+
रासकुमारी के पदनख तक,
होने का है भूख निमंत्रण,
+
गिरि-गह्वर में,
है आवाहन।
+
वन प्रांतर में,
 +
मरुस्थलों में, मैदानों में,
 +
खेतों में औ’ खलिहानों में,
 +
गाँव-गाँव में,
 +
नगर-नगर में,
 +
डगर-डगर में,
 +
बाहर-घर में,
 +
स्वतंत्रता का महामंत्र बन,
 +
कंठ-कंठ से हुआ निनादित,
 +
कंठ-कंठ से हुआ प्रतिध्वनित।
  
भूख नहीं दुर्बल, निर्बल है,
+
जपकर जिसको आजादी के दीवानों ने
भूख सबल है,
+
कितने ही
भूख प्रबल हे,
+
दी मिला जवानी
भूख अटल है,
+
मिट्टी में काले पानी में।
भूख कालिका है, काली है;
+
या काली सर्व भूतेषु
+
क्षुधा रूपेण संस्थिता,
+
नमस्तासै, नमस्तलसै,
+
नमस्तासै नमोनम:!
+
भूख प्रचंड शक्तिशाली है;
+
या चंडी सर्व भूतेषु
+
क्षुधा रूपेण संस्थिता,
+
नमस्तासै, नमस्तलसै,
+
नमस्तासै नमोनम:!
+
भूख्‍ा अखंड शौर्यशाली है;
+
या देवी सर्व भूतेषु
+
क्षुधा रूपेण संस्थिता,
+
नमस्तासै, नमस्तलसै, नमस्तशसै नमोनम:!
+
  
भूख भवानी भयावनी है,
+
<poem>
अगणित पद, मुख, कर वाली है,
+
बड़े विशाल उदारवाली है।
+
भूख धरा पर जब चलती है
+
वह डगमग-डगमग हिलती है।
+
वह अन्यापय चबा जाती है,
+
अन्या्यी को खा जाती है,
+
और निगल जाती है पल में
+
आतताइयों का दु:शासन,
+
हड़प चुकी अब तक कितने ही
+
अत्याचचारी सम्राटों के
+
छत्र, किरीट, दंड, सिंहासन!
+
</poem>
+

17:47, 23 दिसम्बर 2009 का अवतरण

पड़ गया बंगाले में काल,
भरी कंगालों से धरती,
भरी कंकालों से धरती!

दीनता ले असंख्य अवतार,
पेट खला,
हाथ पसार,
पाँच उँगलियाँ बाँध,
मुँह दिखला,
भीतर घुसी हुई आँखों से,
आँसू ढार,
मानव होने का सारा सम्मान बिसार,
घूमती गाँव-गाँव,
घूमती नगर-नगर,
बाज़ारों-हाटों में, दर-दर, द्वार-द्वार!

अरे, यह भूख हुई साकार,
दीर्घाकार!
तृप्त कर सकता इसको कौन?
पेट भर सकता इसका कौन?
भूख ही होती, लो, भोजन!
मृत्यु अपना मुख शत-योजन
खोलती,
खाती और चबाती,
मोद मनाती,
मग्न हो मृत्यु नृत्य करती!
नग्न हो मृत्यु नृत्य करती!
देती परम तुष्टि की ताल,
पड़ गया बंगाले में काल,
भरी कंगालों से धरती,
भरी कंकालों से धरती!

क्या कहा?
कहाँ पड़ गया काल,
कहाँ कंगाल,
कहाँ कंकाल,
क्या कहा, कालत्रस्त बंगाल!

वही बंगाल-
जिस पर सजल घनों की
छाया में लह-लह लहराते
खेत धान के दूर-दूर तक,
जहाँ कहीं भी गति नयनों की।

जिस पर फैले नदी-सरोवर,
नद-नाले वर,
निर्मल निर्झर
सिंचित करते वसुंधरा का
आँगन उर्वर।

जिसमें उगते-बढ़ते तरुवर,
लदे दलों से,
फँदे फलों से,
सजे कली-कली कुसुमों से सुंदर।

वही बंगाल--
देख जिसे पुलकित नेत्रों से,
भरे कंठ से,
गद्गद स्वर से,
कवि ने गाया राष्ट्र गान वह-
वन्दे मातरम्,
सुजलाम्, सुफलाम्, मलयज शीतलाम्,
शस्य श्यामलाम्, मातरम्...।

वन्दे मातरम्--
जो नगपति के उच्च शिखर से
रासकुमारी के पदनख तक,
गिरि-गह्वर में,
वन प्रांतर में,
मरुस्थलों में, मैदानों में,
खेतों में औ’ खलिहानों में,
गाँव-गाँव में,
नगर-नगर में,
डगर-डगर में,
बाहर-घर में,
स्वतंत्रता का महामंत्र बन,
कंठ-कंठ से हुआ निनादित,
कंठ-कंठ से हुआ प्रतिध्वनित।

जपकर जिसको आजादी के दीवानों ने
कितने ही
दी मिला जवानी
मिट्टी में काले पानी में।