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"भविष्य घट रहा है (कविता) / कैलाश वाजपेयी" के अवतरणों में अंतर

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कोलाहल इतना मलिन
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दुःख कुछ इतना संगीन हो चुका है
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चुप चला जाऊँ
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सही नहीं जाती
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पृथ्वी-भर मासूम बच्चों 
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माँओं की बेकल चीख़।
 +
सारे के सारे रास्ते 
  
कोलाहल इतना मलिन<br>
+
सिर्फ़ दूरियों का मानचित्र थे
दुःख कुछ इतना संगीन हो चुका है<br>
+
रहा भूगोल
मन होता है<br>
+
उसका अपना ही पुश्तैनी फ़रेब है  
सारा विषपान कर<br>
+
कल तक्षशिला आज पेशावर 
चुप चला जाऊँ<br>
+
इसके बाद भेद-ही-भेद
ध्रुव एकान्त में <br>
+
जड़ का शाखाओं से 
सही नहीं जाती<br>
+
दाहिनी भुजा का बायीं
पृथ्वी-भर मासूम बच्चों <br>
+
कलाई से। 
माँओं की बेकल चीख़।<br>
+
सारे के सारे रास्ते<br><br>
+
  
सिर्फ़ दूरियों का मानचित्र थे<br>
+
बीसवीं सदी के विशद
रहा भूगोल<br>
+
पटाक्षेप पर
उसका अपना ही पुश्तैनी फ़रेब है<br>
+
देख रहा हूँ मैं गिर रही दीवार
कल तक्षशिला आज पेशावर <br>
+
पानी की 
इसके बाद भेद-ही-भेद<br>
+
डूब रहे बड़े-बड़े नाम
जड़ का शाखाओं से <br>
+
कपिल के सांख्य का आख़िरी भोजपत्र 
दाहिनी भुजा का बायीं<br>
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फँसा फड़फड़ा रहा- 
कलाई से।<br><br>
+
  
बीसवीं सदी के विशद<br>
+
अन्त हो रहा या शायद
पटाक्षेप पर<br>
+
पुनर्जन्म 
देख रहा हूँ मैं गिर रही दीवार<br>
+
पस्त पड़ी क्रान्ति का। 
पानी की <br>
+
डूब रहे बड़े-बड़े नाम<br>
+
कपिल के सांख्य का आख़िरी भोजपत्र <br>
+
फँसा फड़फड़ा रहा-<br><br>
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अन्त हो रहा या शायद<br>
+
बीसवीं सदी के विशद मंच पर
पुनर्जन्म <br>
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खड़े जुनून भरे लोग-
पस्त पड़ी क्रान्ति का।<br><br>
+
जिन नगरों में जन्मे थे
 +
उन्हीं को जला रहे
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एक ओर एक लाख मील चल 
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गिरता हुआ अनलपिण्ड 
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और 
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दूसरी तरफ़ बुलबुला
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बुलबुला
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इनकार करता है पानी 
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कहलाने से 
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बडा समझदार हो गया है बुलबुला। 
  
बीसवीं सदी के विशद मंच पर<br>
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असल में अनिबद्ध था विकल्प
खड़े जुनून भरे लोग-<br>
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विकल्प ही भविष्य था 
जिन नगरों में जन्मे थे<br>
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भविष्य पर घट रहा है।
उन्हीं को जला रहे<br>
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एक ओर एक लाख मील चल <br>
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अमरौती की तलाश भी
गिरता हुआ अनलपिण्ड <br>
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जा छिपी राष्ट्रसंघ के
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पुस्तकालय में 
दूसरी तरफ़ बुलबुला<br>
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देश जहाँ प्रेम की पुण्यतिथि मना रहे 
बुलबुला<br>
+
इनकार करता है पानी <br>
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कहलाने से <br>
+
बडा समझदार हो गया है बुलबुला।<br><br>
+
  
असल में अनिबद्ध था विकल्प<br>
+
ज़िक्र जब आता वंशावलि का
विकल्प ही भविष्य था <br>
+
हरिशचन्द्र की 
भविष्य पर घट रहा है।<br>
+
पारित हो लेता स्थगन प्रस्ताव
इस क्षणभंगुर संसार में <br>
+
शायद सभी को
अमरौती की तलाश भी<br>
+
अपना भुइँतला ज्ञात है।  
जा छिपी राष्ट्रसंघ के<br>
+
बहारों की नगरी में नाद बेहद का
पुस्तकालय में <br>
+
आकाश फट रहा
देश जहाँ प्रेम की पुण्यतिथि मना रहे <br><br>
+
एक आँखों वाले संयन्त्र पर 
  
ज़िक्र जब आता वंशावलि का<br>
+
देख रहे बच्चे
हरिशचन्द्र की <br>
+
अपनी जन्मस्थली
पारित हो लेता स्थगन प्रस्ताव<br>
+
बेपरदा हुई मनुष्यता
शायद सभी को<br>
+
भोग के प्रमाणपत्र बाँट रही 
अपना भुइँतला ज्ञात है।<br>
+
खुल रही पहेली दिन-ब-दिन
बहारों की नगरी में नाद बेहद का<br>
+
रहस्य 
आकाश फट रहा<br>
+
झिझक रहा फुटपाथ पर पड़ा 
एक आँखों वाले संयन्त्र पर <br><br>
+
अपने पहचान-पत्र का अभाव में 
 +
दरिद्रदेवता
 +
पूछ रहा पता
 +
हवालात का 
  
देख रहे बच्चे<br>
+
जहाँ उसने अपनी शिनाख़्त की 
अपनी जन्मस्थली<br>
+
अनुपस्थिति के सबूत के अभाव में 
बेपरदा हुई मनुष्यता<br>
+
फाँसी लगेगी...लगनी है
भोग के प्रमाणपत्र बाँट रही <br>
+
असल में यह अनुपस्थिति का मेला है
खुल रही पहेली दिन-ब-दिन<br>
+
खत्म हुई चीज़ों की ख़रीद का विज्ञापन 
रहस्य <br>
+
युवा युवतियों को बुला रहा  
झिझक रहा फुटपाथ पर पड़ा <br>
+
कि गर्भ की गर्दिश से बचने के 
अपने पहचान-पत्र का अभाव में <br>
+
कितने नये ढंग अपना चुकी है
दरिद्रदेवता<br>
+
मरती शताब्दी 
पूछ रहा पता<br>
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हवालात का <br><br>
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जहाँ उसने अपनी शिनाख़्त की <br>
+
शोर-शोर सब तरफ़ घनघोर
अनुपस्थिति के सबूत के अभाव में <br>
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नेता सब व्यस्त कुरते की लम्बाई बढ़ाने में 
फाँसी लगेगी...लगनी है<br>
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स्त्रियाँ
असल में यह अनुपस्थिति का मेला है<br>
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खत्म हुई चीज़ों की ख़रीद का विज्ञापन <br>
+
किसी को फ़िक्र नहीं सौ करोड़ वाले 
युवा युवतियों को बुला रहा<br>
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+
कितने करोड़ हैं जो अनाथ हैं
कितने नये ढंग अपना चुकी है<br>
+
कुत्तों की फूलों में कोई रूचि नहीं 
मरती शताब्दी <br><br>
+
न मछलियों का छुटकारा
 +
अपनी दुर्गन्ध से
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यों सारी उम्र रहीं पानी में। 
  
शोर-शोर सब तरफ़ घनघोर<br>
+
कैसे मैं पी लूँ सारा विष
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+
विलय से पहले
स्त्रियाँ<br>
+
मुझ नगण्य के लिए यह 
उभराने में वक्ष<br>
+
पेंचीदा सवाल है।
किसी को फ़िक्र नहीं सौ करोड़ वाले <br>
+
सब फेंके दे रही सभ्यता
इस देश में <br>
+
धरती की कोख 
कितने करोड़ हैं जो अनाथ हैं<br>
+
दिन-ब-दिन ख़ाली
कुत्तों की फूलों में कोई रूचि नहीं <br>
+
पानी हवा आकाश
न मछलियों का छुटकारा<br>
+
हरियाली धूप
अपनी दुर्गन्ध से <br>
+
धीरे-धीरे
यों सारी उम्र रहीं पानी में।<br><br>
+
बढ़ती चली जा रही 
 +
कंगाली सब्र की
 +
समझ कै़द 
 +
बड़बोले की कारा में 
  
कैसे मैं पी लूँ सारा विष<br>
+
त्वरा के चक्कर में 
विलय से पहले<br>
+
सब इन्तजार हो गया है
मुझ नगण्य के लिए यह <br>
+
काल को पछाड़कर 
पेंचीदा सवाल है।<br>
+
तेज़ रफ्तार से 
सब फेंके दे रही सभ्यता<br>
+
सब-कुछ होते हुए
धरती की कोख <br>
+
होना 
दिन-ब-दिन ख़ाली<br>
+
बदल गया है
पानी हवा आकाश<br>
+
समृद्धि के अकाल में
हरियाली धूप<br>
+
अस्ति से परास्त 
धीरे-धीरे<br>
+
विभवग्रस्त आदमी
बढ़ती चली जा रही <br>
+
एक-एक कर 
कंगाली सब्र की <br>
+
फेंककर 
समझ कै़द <br>
+
सारी सम्पदा
बड़बोले की कारा में <br><br>
+
क्या पृथ्वी भी 
 +
फेंक देगा ? 
  
त्वरा के चक्कर में <br>
+
मेरे समक्ष यह
सब इन्तजार हो गया है<br>
+
संजीदा सवाल है  
काल को पछाड़कर <br>
+
ठीक है कि सूर्य बुझनहार धूनी है 
तेज़ रफ्तार से <br>
+
किसी अवधूत की
सब-कुछ होते हुए<br>
+
अविद्या-विद्यमान को ही़
होना <br>
+
शाश्वत मानना 
बदल गया है<br>
+
ठीक है कि हस्ती
समृद्धि के अकाल में<br>
+
एक झूठा हंगामा है 
अस्ति से परास्त <br>
+
हर प्रतीक्षा का
विभवग्रस्त आदमी<br>
+
गुणनफल 
एक-एक कर <br>
+
सिराना चुक 
फेंककर <br>
+
जाना है।
सारी सम्पदा<br>
+
तभी भी निष्ठा उकसाती मुझे 
क्या पृथ्वी भी <br>
+
फेंक देगा ?<br><br>
+
  
मेरे समक्ष यह<br>
+
सब कुछ को रोक देना
संजीदा सवाल है<br>
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जरूरी है  
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+
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अविद्या-विद्यमान को ही़<br>
+
पेड़ से हवा से  
शाश्वत मानना <br>
+
कहना चाहिए  
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+
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एक झूठा हंगामा है <br>
+
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हर प्रतीक्षा का<br>
+
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गुणनफल <br>
+
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सिराना चुक <br>
+
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जाना है।<br>
+
किसी ताल में
तभी भी निष्ठा उकसाती मुझे <br><br>
+
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+
आएगा।  
सब कुछ को रोक देना <br>
+
पृथ्वी बच जाएगी  
जरूरी है<br>
+
मैं रहूँ नहीं रहूँ  
भूलकर अपनी अवस्था।<br>
+
चिड़ियों से फूलों से <br>
+
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कहना चाहिए<br>
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भीतर से बाहर का तालमेल <br>
+
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+
बिसरा सरगम<br>
+
किसी ताल में <br>
+
होकर निबद्ध फिर<br>
+
आएगा।<br>
+
पृथ्वी बच जाएगी<br>
+
मैं रहूँ नहीं रहूँ<br>
+
 
फ़र्क क्या।
 
फ़र्क क्या।
 +
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23:48, 23 दिसम्बर 2009 के समय का अवतरण

कोलाहल इतना मलिन
दुःख कुछ इतना संगीन हो चुका है
मन होता है
सारा विषपान कर
चुप चला जाऊँ
ध्रुव एकान्त में
सही नहीं जाती
पृथ्वी-भर मासूम बच्चों
माँओं की बेकल चीख़।
सारे के सारे रास्ते

सिर्फ़ दूरियों का मानचित्र थे
रहा भूगोल
उसका अपना ही पुश्तैनी फ़रेब है
कल तक्षशिला आज पेशावर
इसके बाद भेद-ही-भेद
जड़ का शाखाओं से
दाहिनी भुजा का बायीं
कलाई से।

बीसवीं सदी के विशद
पटाक्षेप पर
देख रहा हूँ मैं गिर रही दीवार
पानी की
डूब रहे बड़े-बड़े नाम
कपिल के सांख्य का आख़िरी भोजपत्र
फँसा फड़फड़ा रहा-

अन्त हो रहा या शायद
पुनर्जन्म
पस्त पड़ी क्रान्ति का।

बीसवीं सदी के विशद मंच पर
खड़े जुनून भरे लोग-
जिन नगरों में जन्मे थे
उन्हीं को जला रहे
एक ओर एक लाख मील चल
गिरता हुआ अनलपिण्ड
और
दूसरी तरफ़ बुलबुला
बुलबुला
इनकार करता है पानी
कहलाने से
बडा समझदार हो गया है बुलबुला।

असल में अनिबद्ध था विकल्प
विकल्प ही भविष्य था
भविष्य पर घट रहा है।
इस क्षणभंगुर संसार में
अमरौती की तलाश भी
जा छिपी राष्ट्रसंघ के
पुस्तकालय में
देश जहाँ प्रेम की पुण्यतिथि मना रहे

ज़िक्र जब आता वंशावलि का
हरिशचन्द्र की
पारित हो लेता स्थगन प्रस्ताव
शायद सभी को
अपना भुइँतला ज्ञात है।
बहारों की नगरी में नाद बेहद का
आकाश फट रहा
एक आँखों वाले संयन्त्र पर

देख रहे बच्चे
अपनी जन्मस्थली
बेपरदा हुई मनुष्यता
भोग के प्रमाणपत्र बाँट रही
खुल रही पहेली दिन-ब-दिन
रहस्य
झिझक रहा फुटपाथ पर पड़ा
अपने पहचान-पत्र का अभाव में
दरिद्रदेवता
पूछ रहा पता
हवालात का

जहाँ उसने अपनी शिनाख़्त की
अनुपस्थिति के सबूत के अभाव में
फाँसी लगेगी...लगनी है
असल में यह अनुपस्थिति का मेला है
खत्म हुई चीज़ों की ख़रीद का विज्ञापन
युवा युवतियों को बुला रहा
कि गर्भ की गर्दिश से बचने के
कितने नये ढंग अपना चुकी है
मरती शताब्दी

शोर-शोर सब तरफ़ घनघोर
नेता सब व्यस्त कुरते की लम्बाई बढ़ाने में
स्त्रियाँ
उभराने में वक्ष
किसी को फ़िक्र नहीं सौ करोड़ वाले
इस देश में
कितने करोड़ हैं जो अनाथ हैं
कुत्तों की फूलों में कोई रूचि नहीं
न मछलियों का छुटकारा
अपनी दुर्गन्ध से
यों सारी उम्र रहीं पानी में।

कैसे मैं पी लूँ सारा विष
विलय से पहले
मुझ नगण्य के लिए यह
पेंचीदा सवाल है।
सब फेंके दे रही सभ्यता
धरती की कोख
दिन-ब-दिन ख़ाली
पानी हवा आकाश
हरियाली धूप
धीरे-धीरे
बढ़ती चली जा रही
कंगाली सब्र की
समझ कै़द
बड़बोले की कारा में

त्वरा के चक्कर में
सब इन्तजार हो गया है
काल को पछाड़कर
तेज़ रफ्तार से
सब-कुछ होते हुए
होना
बदल गया है
समृद्धि के अकाल में
अस्ति से परास्त
विभवग्रस्त आदमी
एक-एक कर
फेंककर
सारी सम्पदा
क्या पृथ्वी भी
फेंक देगा ?

मेरे समक्ष यह
संजीदा सवाल है
ठीक है कि सूर्य बुझनहार धूनी है
किसी अवधूत की
अविद्या-विद्यमान को ही़
शाश्वत मानना
ठीक है कि हस्ती
एक झूठा हंगामा है
हर प्रतीक्षा का
गुणनफल
सिराना चुक
जाना है।
तभी भी निष्ठा उकसाती मुझे

सब कुछ को रोक देना
जरूरी है
भूलकर अपनी अवस्था।
चिड़ियों से फूलों से
पेड़ से हवा से
कहना चाहिए
भीतर से बाहर का तालमेल
नाव नदी संयोग
के बावजूद
बना अगर रहा न्यूनतम भी
बिसरा सरगम
किसी ताल में
होकर निबद्ध फिर
आएगा।
पृथ्वी बच जाएगी
मैं रहूँ नहीं रहूँ
फ़र्क क्या।