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व्यतीत करता था गुन-गुन कर<br>
सम्पादक के गुण; यथाभ्यास<br>
पास की नोचता नोंचता हुआ घास<br>
अज्ञात फेंकता इधर-उधर<br>
भाव की चढी चढी़ पूजा उन पर।<br>
याद है दिवस की प्रथम धूप<br>
थी पडी़ हुई तुझ पर सुरूप,<br>
सस्नेह कह चुके थे जीवन<br>
सुखमय होगा, विवाह कर लो<br>
जो पढी पढी़ लिखी हो -- सुन्दर हो।<br>
आये ऐसे अनेक परिणय,<br>
पर विदा किया मैनें मैंने सविनय<br>
सबको, जो अडे़ प्रार्थना भर<br>
नयनों में, पाने को उत्तर<br>
"वे बडे़ भले जन हैं भैय्या,<br>
एन्ट्रेंस पास है लड़की वह,<br>
बोले मुझसे -- 'छब्बिस छब्बीस ही तो<br>
वर की है उम्र, ठीक ही है,<br>
लड़की भी अट्ठारह की है।'<br>
लड़की भी रूपवती; समुचित<br>
आपको यही होगा कि कहें<br>
हर तरह उन्हें; वर सुखी रहे।रहें।'<br><br>
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