भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"मोनालीसा और मैं... / रंजना भाटिया" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रंजना भाटिया |संग्रह= }} Category:कविता <poem> जब भी देखा ...)
 
छो (मोनालीसा और मैं.../रंजना भाटिया का नाम बदलकर मोनालीसा और मैं... / रंजना भाटिया कर दिया गया है)
 
(एक अन्य सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया)
पंक्ति 7: पंक्ति 7:
 
<poem>  
 
<poem>  
  
जब भी देखा है दीवार पर टंगी
+
जब भी देखा है दीवार पर टँगी
 
मोनालीसा की तस्वीर को
 
मोनालीसा की तस्वीर को
देख के आईने में ख़ुद को भी निहारा है
+
देख कर आईने में ख़ुद को भी निहारा है
 
तब जाना कि ..
 
तब जाना कि ..
 
दिखती है उसकी मुस्कान
 
दिखती है उसकी मुस्कान
उसकी आंखो में
+
उसकी आँखों में
 
जैसे कोई गुलाब
 
जैसे कोई गुलाब
धीरे से मुस्कराता है
+
धीरे-से मुस्कराता है
 
चाँद की किरण को
 
चाँद की किरण को
कोई हलका सा 'टच' दे आता है
+
कोई हलका-सा 'टच' दे आता है
घने अंधेरे में भी चमक जाती है
+
घने अँधेरे में भी चमक जाती है
उसके गुलाबी भींचे होंठो की रंगत
+
उसके गुलाबी भिंचे होंठों की रंगत
 
जैसे कोई उदासी की परत तोड़ के
 
जैसे कोई उदासी की परत तोड़ के
 
मन के सब भेद दिल में ओढ़ के
 
मन के सब भेद दिल में ओढ़ के
 
झूठ को सच और
 
झूठ को सच और
सच को झूठ बतला जाती हैं
+
सच को झूठ बतला जाती है
 
लगता है तब मुझे..
 
लगता है तब मुझे..
 
मोनालीसा में अब भी
 
मोनालीसा में अब भी
पंक्ति 29: पंक्ति 29:
 
दर्द पा कर भी
 
दर्द पा कर भी
 
अपनों पर ,परायों पर
 
अपनों पर ,परायों पर
और फ़िर
+
और फिर
 
किसी दूसरी तस्वीर से मिलते ही
 
किसी दूसरी तस्वीर से मिलते ही
 
खोल देती है अपना मन
 
खोल देती है अपना मन
पंक्ति 35: पंक्ति 35:
 
और कहीं की कहीं पहुँच जाती है
 
और कहीं की कहीं पहुँच जाती है
 
अपनी ही किसी कल्पना में
 
अपनी ही किसी कल्पना में
आंगन से आकाश तक की
+
आँगन से आकाश तक की
 
सारी हदें पार कर आती है
 
सारी हदें पार कर आती है
वरना यूं कौन मुस्कराता है
+
वरना यूँ कौन मुस्कराता है
 
उसके भीचे हुए होंठो में छिपा
 
उसके भीचे हुए होंठो में छिपा
यह मुस्कराहट का राज
+
यह मुस्कराहट का राज़
कौन कहाँ समझ पाता है!!
+
कौन कहाँ समझ पाता है !!
 
<poem>
 
<poem>

20:42, 24 दिसम्बर 2009 के समय का अवतरण

 

जब भी देखा है दीवार पर टँगी
मोनालीसा की तस्वीर को
देख कर आईने में ख़ुद को भी निहारा है
तब जाना कि ..
दिखती है उसकी मुस्कान
उसकी आँखों में
जैसे कोई गुलाब
धीरे-से मुस्कराता है
चाँद की किरण को
कोई हलका-सा 'टच' दे आता है
घने अँधेरे में भी चमक जाती है
उसके गुलाबी भिंचे होंठों की रंगत
जैसे कोई उदासी की परत तोड़ के
मन के सब भेद दिल में ओढ़ के
झूठ को सच और
सच को झूठ बतला जाती है
लगता है तब मुझे..
मोनालीसा में अब भी
छिपी है वही औरत
जो मुस्कारती रहती है
दर्द पा कर भी
अपनों पर ,परायों पर
और फिर
किसी दूसरी तस्वीर से मिलते ही
खोल देती है अपना मन
उड़ने लगती है हवा में
और कहीं की कहीं पहुँच जाती है
अपनी ही किसी कल्पना में
आँगन से आकाश तक की
सारी हदें पार कर आती है
वरना यूँ कौन मुस्कराता है
उसके भीचे हुए होंठो में छिपा
यह मुस्कराहट का राज़
कौन कहाँ समझ पाता है !!