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"नाद स्वाद तन बाद तज्यो मृग है मन मोहत / भीषनजी" के अवतरणों में अंतर

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<poeM>नाद स्वाद तन बाद तज्यो मृग है मन मोहत।
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:नाद स्वाद तन बाद तज्यो मृग है मन मोहत।
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गुर परसादि कहै जनु ’भीषनु’ पावहु मोष दुआरा॥
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ऐसा नामु रतनु निरमोलकु पुन्नि पदारथ पाइआ।
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अनिक जतन करि हिरदै राषिआ, रतनु न छपै छपाइआ।
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:हरिगुन कहते कहनु न जाई।
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रसना रमत सुनत सुषु स्रवना, चित चेते सुषु होई।
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कहु ’भीषन’ दुई नैन संतोषे, जहँ देषा तहँ सोई॥
 
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23:25, 25 दिसम्बर 2009 के समय का अवतरण

नाद स्वाद तन बाद तज्यो मृग है मन मोहत।
परयो जाल जल मीन लीन रसना रस सोहत।
भृंग नासिका बास केतकी कंटक छीनो।
दीपक ज्योति पतंग रूप रस नयनन्ह दीनो।
एक व्याधि गज काम बस, पर्‌यो खाड़े सिर कूटिहै।
पंच व्याधि बस ’भीखजन’ सो कैसे करि छूटिहै।

नैनहु नीरू बहै तनु षीना, भये केस दुधवानी।
रूँधा कंठु सबदु नहीं उचरै, अब किआ करहि परानी॥
राम राइ होहि वैद बनवारी ।
अपने संतह लेहु उबारी ।
माथे पीर सरीरि जलनि है, करक करेजे माँही।
ऐसी वेदन उपजि षरी भई, वाकी औषधु नाहीं।
हरि का नाम अम्रिल जलु निरमलु, इहु औषधु जगि सारा।
गुर परसादि कहै जनु ’भीषनु’ पावहु मोष दुआरा॥

ऐसा नामु रतनु निरमोलकु पुन्नि पदारथ पाइआ।
अनिक जतन करि हिरदै राषिआ, रतनु न छपै छपाइआ।
हरिगुन कहते कहनु न जाई।
जैसे गूँगे की मिठिआई।
रसना रमत सुनत सुषु स्रवना, चित चेते सुषु होई।
कहु ’भीषन’ दुई नैन संतोषे, जहँ देषा तहँ सोई॥