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रुकते अटकते कभी
 
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थक कर खो जाते अपनी ही उम्मीदों में
 
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निराशा को पढ़ते हुए सुबह की डाक में
 
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पूरी हो गई एक क़िताब
 
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किसी अंत से शुरू होती
 
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किसी आरंभ पर रुक जाती
 
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आकाश गंगा में एक
 
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बूंद पृथ्वी
 
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भटकते अंधकार में
 
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'''रचनाकाल: 17.9.2004
 
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17.9.2004
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17:57, 26 दिसम्बर 2009 के समय का अवतरण

रुकते अटकते कभी
थक कर खो जाते अपनी ही उम्मीदों में
निराशा को पढ़ते हुए सुबह की डाक में

पूरी हो गई एक क़िताब
किसी अंत से शुरू होती
किसी आरंभ पर रुक जाती
पूरी हो गई एक क़िताब

आकाश गंगा में एक
बूंद पृथ्वी
भटकते अंधकार में

रचनाकाल: 17.9.2004