|रचनाकार=रमा द्विवेदी
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{{KKCatKavita}}<poem>नारी तू जगजननी है,जगदात्री है,<br>तू दुर्गा है ,तू काली है,<br>तुझमें असीम शक्ति भंडार,<br>फ़िर क्यों इतनी असहाय, निरूपाय,<br>याद कर अपने अतीत को,<br>तोड कर रूढियों-<br>बंधनों एवं परम्पराओं को.<br>आंख खोल कर देख,<br>दुनिया का नक्शा ,<br>कुछ सीख ले,<br>वर्ना पछ्तायेगी,<br>तू सदियों पीछे,<br> पहुंचा दी जायेगी ।<br>तू क्यों पुरूष के हाथ की,<br>कठपुतली बन शोषित होती है?<br>तू दुर्गा बन, तू महालक्ष्मी बन<br>तू क्यों भोग्या समर्पिता बनती है?<br>यह पुरूष स्वयं में कुछ भी नहीं,<br>सब तूने ही है दिया उसे,<br>वही तुझे आज शोषित कर,<br>अन्याय और अत्याचार कर,<br>तुझे विवश करता है,<br>अस्मिता बेचने के लिए,<br>और तू निर्बल बन,<br>घुटने टेक देती है ।<br>क्यों???<br>क्या तू इतनी निर्बल है?<br>अगर ऎसा है-<br>तो घर में ही बैठो,<br>बाहर निकलने की-<br>जरूरत नहीं,<br>पर यह मत भूलो कि-<br>घर में भी तेरा शोषण होगा ही<br>फर्क होगा सिर्फ़ ,<br>हथियारों के इस्तेमाल में ।<br>तूने इतने त्याग- कष्ट सहे हैं-<br>किसके लिए?<br>अपने अस्तित्व एवं अस्मिता की,<br>रक्षा के लिए,<br>या<br>दूसरो के लिए?<br>सोच ले तू कहां है?<br>सब कुछ देकर,<br>तेरे पास अपना,<br>क्या बचा है? <br> कुछ पाने के लिए संघर्ष कर ।<br>भौतिक सुखों को त्याग कर,<br>नर-पाश्विकता से जूझ कर,<br>स्वयं अपने पथ का निर्माण कर,<br>अपनी योग्यता से आगे बढ. ।<br>मत सह पुरूष के अत्याचार,<br>द्ढ संकल्प लेकर,<br>बढ जा जीवन पथ पर,<br>निराश न हो,<br>घबरा कर कर्म पथ से,<br>विचलित न हो,<br>तू अडिग रह, अटल रह,<br>अपने लक्ष्य पर,<br>तेरी विजय निश्चित है ।<br>तू अपनी "पहचान" को,<br>विवशता का रूप न दे,<br>वर्ना नर भेडि़ए तुझे,<br>समूचा ही निगल जाएंगे ।<br>खोकर अपनी अस्मिता को,<br>कुछ पा लेना ,<br>जीवन की सार्थकता नहीं,<br>आत्म ग्लानि तुझे,<br>नर्काग्नि में जलायेगी ।<br>इसलिए तू सजग हो जा,<br>तू इन्दिरा ,गार्गी, मैत्रेयी,<br>विजय लक्ष्मी बन,<br>कर्म में प्रवत्त हो,<br>अपने लक्ष्य तक पहुंच <br> पुरूष के पशु को पराजित कर,<br>स्वयं की महत्ता उदघाटित कर,<br>इसी में तेरे जीवन की,<br>सार्थकता है,<br>और<br>जीवन की महान उपलब्धि भी<br/poem>