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{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=रमा द्विवेदी}}{{KKCatKavita}}<poem>पल-पल रिश्ते भी मुरझाते हैं<br>उम्र बढते-बढते वे घटते जाते हैं।<br>मानव कुछ और की चाह बढाते हैं,<br>इसलिए वे कहीं और भटक जातेहैं॥<br><br>
रिश्ते का जो पक्ष कमजोर है,<br>समय उसको ही देता झकझोर है।<br>अतीत की गवाही नहीं चलती वहां,<br>मानव सुख की पूंजी का जमाखोर है॥<br><br>
मानव एक रिश्ते को तोड,दूसरे को अपनाता है,<br>अब तक के सारे कसमें-वादे भूल जाता है।<br>मानव से अधिक स्वार्थी न कोई होगा जहां में,<br>अपनी तनिक खुशी के लिए वो दूसरों के घर जलाता है॥ <br> <br/poem>
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