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हमसफ़र / रमा द्विवेदी

35 bytes removed, 16:50, 26 दिसम्बर 2009
{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= रमा द्विवेदी}}{{KKCatKavita}}<poem>ज़िन्दगी के लंबे सफ़र में, कोई मनचाहा हमसफ़र मिल जाए।
मौसम कोई भी हो,बंधन कैसे भी हों,
लाख समझाने पर भी,
मन कुछ दूर साथ-साथ,
चलने के लिए कसमसाए.....।
ज़िन्दगी के लंबे सफ़र में,<br>कोई मनचाहा हमसफ़र मिल जाए।<br><br>मौसम कोई भी हो,बंधन कैसे भी हों,<br>लाख समझाने पर भी,<br>मन कुछ दूर साथ-साथ,<br>चलने के लिए कसमसाए.....।<br><br>कुछ पल का ही साथ क्यों न सही,<br>दिल खुशियों से उमड़-उमड़ आए,<br>क्या दायित्वों के बोझ से कोई,<br>अपनी क्षणिक खुशियों को छोड़ आए....।<br><br>  क्या इंसान का संबंधों के सिवा अपना अस्तित्व नहीं?<br>एक क्षण भी अपनी खुशी से जीने का हक़ नहीं?<br>दायित्वों की बलिवेदी पर,क्यों?<br>अपनी छोटी-छोटी खुशियों की बलि चढाए.....।<br><br>  माना कि संबंधों के लिए जीना आदर्श है,मिसाल है,<br>किन्तु एक प्रश्न मेरे ज़ेहन में उमड़ता है,पूछ्ता है,<br>फिर इंसान स्वयं में क्या है?<br>मेरे प्रश्न का उत्तर कोई तो बताए.....? <br><br/poem>
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