भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"ढँको प्रभु जी / गगन गिल" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
छो ("ढँको प्रभु जी / गगन गिल" सुरक्षित कर दिया ([edit=sysop] (indefinite) [move=sysop] (indefinite)))
 
पंक्ति 41: पंक्ति 41:
 
प्रभु जी
 
प्रभु जी
 
इसके
 
इसके
कुएँ को ढको
+
कुएँ को ढँको
 
::जल न मिले
 
::जल न मिले
 
::तो इसे
 
::तो इसे

13:07, 27 दिसम्बर 2009 के समय का अवतरण

ढँको प्रभु जी
इस
दिल को ढँको
इस दिल में कई
आँधियाँ झूलीं
इस दिल में कई
लपटें फैलीं

भसम गए सब
जीव सलोने
ढँको प्रभु जी
इस वन को
ढँको
इस दिल में कई
शीत शिलाएँ
उफ़ने सोते
मुर्दा मच्छियाँ

दूर-दूर तक
रिस गया लावा
ढँको प्रभु जी
इस दुख को
ढँको
इस दिल में एक
नंगी चाहत
उखड़ी मिट्टी
टूटे नाखून

खुरच ले गई
माया मिट्टी
गटक गई सारी
प्यास जनम की
ढँको
प्रभु जी
इसके
कुएँ को ढँको
जल न मिले
तो इसे
मिट्टी से पूरो
ढँकनसकोतो एकनींददियो
लम्बी
नींद दियो